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प्रज्ञप्ति ॥५०॥
पन्नत्ते ?, गोयमा ! जे पं निग्गंथे वा निग्गंधी वा निक्वित्तसत्थमुसले ववगयमालावन्नगविलेवणे ववगयचुयचइयचत्तदेहं जीवविप्पजढं अकयमकारियमसंकप्पियमणाहृयमकीयकडमणुट्टि नवकोडीपरिसुद्धं दसदो
२७ शतके सविष्पमुकं उग्गमुप्पायणेसणासुपरिसुद्धं वीतिंगालं वीतधूमं संजोयणादोसविप्पमुकं असुरसुरं अचवचवं अ
उद्देशः१ दुयमविलंबियं अपरिसाडी अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं संयमजायामायावत्तिय संजमभारवहणट्ठयाए ₹५०१॥ बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं आहारमाहारेति एस णं गोयमा! सत्यातीयस्स सत्थपरिणामियस्स जाव पाणभोयणस्म अयमढे पन्नत्ते । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ ( सूत्रं २६९) ॥ सत्तमसए पढमो उद्देसो संमत्तो ७-१॥
(प्र०] हे भगवन् ! शस्त्रातीत ( अनि वगेरे शस्त्रथी उतरेलो) शस्त्रपरिणमित (अग्नि वगेरे शस्त्रथी परिणाम पामेलो-अचित्त करायलो), एपित (एषणा दोपथी रहित ), व्येषित (विविध या विशेषतः एपणादोपथी रहित) सामुदायिक-मिक्षारूप पानभोजननो शो अर्थ कयो छे ? [उ०] हे गौतम! कोइ साधु या साध्वी जे शस्त्र अने मुशलादिरहित हे, तेम पुष्पमाला अने चन्दनना विलेपन रहित छे तेओ कृम्यादि जन्तु रहित, निर्जीव, (साधुने माटे) नहि करेल, नहि करावेल, नहि संकल्पेल, अनाहूत-आमन्त्रण रहित, नहि खरीदेल, औद्देशिक रहित, नवकोटि विशुद्ध, शंकितादि दशदोष रहित, उद्गम अने उत्पादनैपणाना दोपथी विशुद्ध, अंगारदोपरहित, धृमदोषरहित, संयोजनादोपरहित, सुरसुरके चपचप शब्द रहितपणे, बहु उतावळथी नहि तेम बहु धीमेथी नहि, (आहारना) कोइ भागने छोडया शिवाय, गाडानी धरीना मेलनी पेठे के व्रण उपरना लेपनी पेठे, केवळ संयमना निर्वाहने माटे, संयमना
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