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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५०॥
७ शतके उद्देशः१ ॥५०॥
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[प्र०] हे भगवन् ! हवे क्षेत्रातिप्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त अने प्रमाणातिक्रान्त पानभोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? | [उ०] हे गौतम ! कोइ साधु या साध्वी प्रामुक अने एपणीय अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारने सूर्य उग्या पहेला ग्रहण | करी सूर्य उग्या पछी खाय, हे गौतम ! ए क्षेत्रातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् स्वादिम आहारने पहेला पहोरमां ग्रहण करी हेल्ला पहोर सुधी राखीने पछी तेनो आहार करे, हे गौतम ! आ कालातिकान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् खादिम आहारने ग्रहण करीने अर्धयोजननी मर्यादाने ओळंगी पछी खाय, हे गौतम! ए मार्गातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु के साध्वी प्रासुक अने एषणीय यावत् स्वादिम आहारने ग्रहण करीने कुकडीना इंडा प्रमाण बत्रीशथी अधिक कवल खाय, हे गौतम! ए प्रमाषातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय, कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र आठ कवलनो आहार करनार साधु अल्पाहारी कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र बार कवलनो आहार करनार साधुने काइक न्यून अर्ध ऊनोदरिका कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र सोल कोळीआनो आहार करनार साधु द्विभागप्राप्त-अर्धाहारी कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र चोवीस कवलना आहार करनार साधुने ऊनोदरिका कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र बत्रीश कवलनो आहार करनार साधु पमाणमात्रप्रमाणसर भोजन करनार कहेवाय, तेथी एक पण कवल ओछो आहार करनार साधु 'प्रक्रामरसभोजी-अत्यन्त मधुरादि रसनो भोक्ता' ए प्रमाणे न कही शकाय. हे गौतम! ए प्रमाणे क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त अने प्रमाणातिक्रान्त पानभोजननो अर्थ कह्यो छे. ॥ २६८॥
अह भंते ! सत्यातीयस्म सत्थपरिणामयस्स एसियस्स वेसियस्स समुदाणियस्स पाणभोयणस्स के अहे
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