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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४१७॥ ५ शतके उद्देशः९ ॥४१७॥ विस्तीर्ण, बच्चे सांकडो. उपर, विशाल, नीचे पत्यंकना आकारनो, बच्चे उत्तम वज्रना आकारवाळो अने उपर, उंचा उभा मृदंगना आकार जेवो लोकने कह्यो छे तेवा प्रकारना शाश्वत, अनादि, अनंत, परित्त, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्ये संक्षिप्त, उपर विशाळ, नीचे पत्यकाकारे स्थित, बच्चे वर वज्रसमान शरीरवाळा अने उपर उभा मृदंगना आकारे संस्थित एवा लोकमां अनंता जीवधनो उपजी उपजीने नाश पामे छे अने परित्त नियत असंख्य जीवधनो पण उपजी उपजीने नाश पामे ते लोक, भूत छे, उत्पन्न के, विगत डे, परिणत छे. कारण के, ते अजीबो द्वारा लोकाय डे निश्चित थाय छे, अधिक निश्चित थाय छे माटे जे, प्रमाणथी लोकाय जणाय ते लोक कहेबाय ? हा, भगवन् ! ते हेतुथी हे आर्यो ! एम कहेवाय छे के, असंख्येय लोकमां तेज कहे. त्यारथी मांडी ते पार्श्वजिनना शिष्य स्थविर भगवंतो श्रमण भगवंत महावीरने 'सर्वज्ञ' ए प्रमाणे प्रत्यमि जाणे छे. त्यारबाद ते स्थविर भगवंतो श्रमण भगवंत महावीरने वंदे छे, नमे छे, बंदी, नमी एम बोल्या के. हे भगवन् ! तमारी पासे, चातुर्याम धर्मने मूकी प्रतिक्रमण | सहित पंचमहाव्रतोने स्वीकारी विहरवा इच्छीए छीए, हे देवानुप्रिय ! जेम सुख थाय तेम करो. त्यारे ते पार्श्वजिनना शिष्य स्थविर 3 भगवंतो यावत् सर्वदुःखथी प्रहीण थया अने केटलाक देवलोकमां उत्पन्न थया. ॥ २२५ ॥ कतिविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चउब्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तंजहा-भवणवामीवाणमंतरजोतिसियवेमाणियभेदेण, भवणवासी दसविहा वाणमंतरा अट्टविहा जोइसिया पंचविहा वेमाणिया | दुविहा । गाहा-किमियं रायगिहंति य उज्जोए अंधयार समए य । पासंतिवासिपुच्छा रातिदिय देवलोगा य ॥ १॥ सेवं भंते ! २त्ति ।। [सूत्रं २०६] ॥ पंचमे सए नवमो उद्देशो संमत्तो ॥५-९।। , की 4- 2- For Private and Personal Use Only
SR No.020107
Book TitleBhagvati Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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