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६ शतके उद्देशः३ ॥४३३॥
|णिया कम्महिती कम्मनिसेओ, अंतरातियं जहा नाणावरणिज ॥ (सूत्रं २३५)॥ भ्याख्या
[प्र०] हे भगवन् ! केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ? [उ.] हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे, ते जेमके, ज्ञानावरणीय प्रज्ञप्तिः दर्शनावरणीय यावत् अंतराय. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनी बंधस्थिति केटला काळ सुधी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! | ॥४३३॥
जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी त्रीश सागरोपम कोडाकोडी, अने त्रणहजार वरस अबाधाकाळ, ते अबाधकाळ जेटली ऊणी कर्मस्थिति-कर्मनिषेक जाणवो, ए. प्रमाणे दर्शनावरणीय कर्म परत्वे पण जाणवू, वेदनीय कर्म जघन्ये वे समयनी स्थितिवाढं अने उत्कृष्टे जेम ज्ञानावरणीय कर्म का छे तेम जाणवू. मोहनीय कर्म जघन्ये अन्तर्मुहूर्तनी स्थितिवाळं अने उत्कृष्टे ७० सागरोपम कोडाकोडी स्थितिवाळु छे अने सातहजार वरस तेनो अबाधाकाळ छे अर्थात् कर्मस्थिति-कर्मनिषेक काळ, ते अबाधा काळथी ऊणो जाणवो. (हे गौतम ! ) आयुष्य कर्मनी स्थिति जघन्ये अन्तर्मुहूर्त छ अने उत्कृष्टे पूर्व कोटिना त्रिभागथी अधिक तेत्रीश सागरोपम कर्मस्थिति-कर्मनिषेक ने. नामकर्मनो अने गोत्रकर्मनो जघन्य काळ आठ अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट काळ वीश सागरोपम छे तथा बे हजार वरस अबाधा काल छे, ते अबाधा काळथी ऊणी कर्मस्थिति,-कर्मनिषेक जाणवो. जेम ज्ञानावरणीय कर्म का तेम
अंतराय कर्म समजवू. ॥ २३५ ॥ 18 नाणावरणिज णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ पुरिसो बंधड़ नपुंसओ बंधइ ? णोइत्थी नोपुरिसो नोनपुं.
सओ बंधइ ?, गोयमा ! इत्थीवि बंघइ पुरिसोवि बंधइ नपुंसओवि बंधइ नोइत्थी नोपुरिमो नोनपुंसओ सिय बंधइ सिय नो बंधइ, एवं आउगवनाओ सत्त कम्मप्पगडीओ ॥ आउगे णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधड
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