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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७८॥
६ शतके उद्देशः८ ॥४७८॥
असंखेजा दीवसमुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा पन्नत्ता समणाउसो!। दीवसमुद्दा णं भंते! केवतिया नामधेजेहिं पन्नत्ता, गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा सुभा रूवा सुभा गंधा सुभा रसा सुभा फासा एवतिया णं दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पन्नत्ता, एवं नेयव्वा सुभा नामा उद्धारो परिणामो सव्वजीवा णं। सेवं
भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं २५०)॥६-८॥ छट्ठसयस्स अट्ठमो उद्देसो संमत्तो ।। ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लवणसमुद्र उच्छळता पाणीवाळो छे, समजळबाळो छे, क्षुब्धपाणीवाळो छे के अक्षुब्धपाणीवाळो छ ?
[उ०] हे गौतम ! लवणसमुद्र उच्छळता पाणीवाळो छ पण समजळवाळो नथी अने क्षुब्धपाणिवालो छे पण अक्षुब्ध पाणीवाळो नथी, अहिंथी शरु करी जेम जीवाभिगम मुत्रमा का छे तेम जाणवू यावत् ते हेतुथी हे गौतम ! बहारना समुद्रो पूर्ण, पूर्णप्रमाणवाळा, बोलट्टता, छलकता अने समभर घटपणे रहे छे, संस्थानथी एक प्रकारना स्वरूपवाळा छे, विस्तारथी अनेक प्रकारना स्वरूपवाळा छे, द्विगुण, द्विगुण प्रमाण यावत् आ तिर्यग्लोकमा असंख्येय द्वीप समुद्रो, खयंभूरमण समुद्रना अवसान दावाळा हे श्रमणायुष्मन् ! कह्या छ ? [म.] हे भगवन् ! द्वीपोनां अने समुद्रोनां केटला नामधेय कहां छे ? [उ०] हे गौतम ! लोकमां जेटलां शुभ नाम, शुभ रूप, शुभ गध, शुभ रस अने शुभ स्पर्श छे एटला, द्वीपोनां अने समुद्रोनां नाम कयां छे, ए प्रमाणे शुभ नामो जाणवां, उद्धार जाणवो, परिणाम जाणवो अने सर्व जीवोनो द्वीपोमां अने समुद्रोमा उत्पाद जाणवो. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत् विहरे छे. ।। २५० ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना छट्ठा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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