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व्याख्या
शतके
उरेशा
॥३४१॥
णं पञ्चत्थिमेणवि तदा णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पब्बयाणं उत्तरेणं दाहिणेणं राती भवति !, हंता गोयमा ! जाव भवति, एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाच जया णं भंते ! दाहिणड्ढे पढमा ओस तया णं उत्तरड्ढे जया णं उत्तरड्ढे तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पचयाणं पुरच्छिमपञ्चस्थिमेणं नत्थि ओस. जाव ? समणाउसो, हंता गोयमा! जाव समणाउसो, जहा लबणसमुदस्स वत्तब्बया तहा कालोदस्सवि भाणियव्वा, | नवरं कालोदस्स नाम भाणियब्वं । अभितरपुक्खरद्धे ण भंते ! सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जहेव धायइसंडस्स वत्तव्वया तहेव अभितरपुक्खरद्धस्मवि भाणियब्वा, नवरे अभिलावो जाव जाणियन्वो जाव तया णं अमितरपुक्खरद्धे मंदराण पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं नेवत्थि ओस नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवहिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो, सेवं भंते २॥ (सूत्रं १७८ ) ॥ पंचमसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥५-१॥
[प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे घातकीखंड द्वीपमा मंदर पर्वतोनी पूर्वे दिवस होय छे त्यारे पश्चिमे पण दिवस होय हे अने ज्यारे पश्चिमे पण दिवस होय छे त्यारे घातकीखंड द्वीपमां मंदर पर्वतोनी उत्तरे अने दक्षिणे रात्री होय छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते होय छे, अने ए अभिलापथी जाणवू, यावत्- [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे दक्षिणार्धमा प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा पण होय छे त्यारे घातकीखंड द्वीपमा मंदर पर्वतोनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी
नथी होती, उत्सर्पिणी नथी होती ? यावत्-श्रमणायुष्मन् ! [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते छे, यावत्-श्रमणायुष्मन् ! जेम लवणहै समुदनी हकीकत कही तेम कालोद संबंधे पण समजवू. विशेष ए के, लवणने बदले 'कालोदनुं नाम कहे. [प्र.] हे भगवन् !
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