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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५३९॥ 1७ शतके उद्देशः७ ॥५३९।। सा दस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जेणं नो पभू देवलोगगयाई रूवाई पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभूवि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।। (सूत्रं २९१) ॥ सत्तमस्स सत्तमो उद्देसओ संमत्तो ॥ ७-७॥ प्र०] हे भगवन् ! जे आ असंज्ञी मनरहित प्राणीओ छे, जेमके, पृथिवीकायिको यावत् वनस्पतिकायिको अने छट्ठा केटलाएक (संमूर्छिम) त्रस जीवो, जेओ अंध-अज्ञानी, मूढ, अज्ञानान्धकारमा प्रवेश करेला, अज्ञानरूप आवरण अने मोहजालवडे ढंकायेला छे तेओ अकामनिकरण-अनिच्छापूर्वक वेदना वेदे छे एम कहेवाय ? [उ०] हा, गौतम ! जे आ असंज्ञी प्राणीओ पृथिवीकायिको | यावत् वनस्पतिकायिको अने छट्ठा (संमूर्छिम त्रसो) अनिच्छापूर्वक वेदना वेदे छे एम कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के समर्थ छतां (संज्ञी छतां) पण जीव अनिच्छापूर्वक वेदनाने वेदे ! हे गौतम ! हा एम छे. [प्र०] हे भगवन् ! समर्थ छतां पण जीव अनिच्छापूर्वक वेदनाने केम वेदे ! [उ.] हे गौतम ! जे समर्थ छतां अंधकारमा प्रदीप शिवाय रूपो (पदार्थो) जोवाने समर्थ नथी, जे अवलोकन कर्या शिवाय आगळ रहेला रूपो जोवाने समर्थ नथी, जे अवेक्षण कर्या विना पाछळ रहेला रूपो जोवा समर्थ नथी, जे आलोचन कर्या शिवाय उपरना रूपो जोवाने समर्थ नथी, जे आलोचन कर्या शिवाय नीचेना रूपो जोवाने समर्थ नथी; हे गौतम ! ते आ अर्थ समर्थ छतां पण अनिन्छिापूर्वक वेदनाने वेदे छे. [प्र०] हे भगवन् ! एम छे के समर्थ पण प्रकामनिकरणतीवेच्छापूर्वक वेदनाने वेदे ? [उ०] हे गौतम ! हा वेदे. [प्र०] हे भगवन् ! समर्थ छतां पण तीवेच्छापूर्वक वेदनाने केम वेदे ? [उ०] हे गौतम! जे समुद्रनो पार पामवा समर्थ नथी जे समुद्रने पार रहेला रूपो जोवा समर्थ नथी, जे देवलोकमां जवा समर्थ For Private and Personal Use Only
SR No.020107
Book TitleBhagvati Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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