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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४६२॥
६ शतके उद्देश६ ॥४६२॥
आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज वा, अत्थेगतिए तओ पडिनियत्तति, ततो पडिनियत्तित्ता इहमागच्छति २ दोचंपि मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणइ २ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावाससि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, ततो पच्छा आहारेज वा परि
णामेज वा सरीरं वा बंधेजा, एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी। 3. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थयो अने समवहत थइ आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीशलाख निरयाहै वासमांना कोइपण एक निरयावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव हे भगवन् ! त्यां जइने जे आहार करे ? ते
आहारने परिणमावे अने शरीरने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! केटलाक जीव त्यां जइनेज आहार करे, परिणमावे अने शरीरने बांधे || अने केटलाक जीव त्यांथी पाछा वळे छे, पाछा वळीने अहिं आवे छे अने अहिं आवी फरीवार मारणांतिक समुद्घातवडे समवहत | थाय छे, समवहत थइ आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीशलाख निरयावासमाना कोइपण एक निरयावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय छे अने त्यारपछी आहार करे छे, परिणमावे छे अने शरीरने बांधे छे, ए प्रमाणे यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी सुधी जाणवू.
जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए २ जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेतु अन्नयरंसि | | असुरकुमारावाससि असुरकुमारत्ताए उववज्जित्तए जहा नेरच्या तहा भाणियव्वा जाव थणियकुमारा।जीवेणं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए २जे भविएअसंखेजसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढ विकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं केवतियं गच्छेजा केवतियं पाउ
स्क
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