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व्याख्या प्रज्ञप्तिः
५ शतके उद्देशः४
छउमत्थे मणुसे हसेज जाव उस्सु० तहा णं केवलीवि हसेज वा उस्सुयाएज बा ?, गोयमा! नो इण? ममह, से केणतुणं भंते ! जाब नो णं तहा केवली हसेज वा जाव उस्सुयाएज्ज वा?, गोयमा ! जपणं जीवा चरित्तमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं हसति वा उस्सुयायति वा, से णं केवलिस्स नत्थि, से तेणटेणं जाव नो णं तहा केवली हसेज वा उस्सुयाएज वा। जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्पयडीओ बंधइ ?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहवंधए वा, एवं जाव वेमाणिए, पोहत्तिएहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो । छउमत्थे णं भंते ! मणूसे निहाएज वा पयलाएज वा!, हंता निद्दाएज वा पयलाएन वा, जहा हसेज वा तहा नवरं दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं निहायंति वा पयलायंति वा, से णं केवलिस्स नत्थि, अन्नं तं चेव । जीवे णं भंते ! निद्दायमाणे वा पयलाणमाणे वा कति कम्मपयडीओ बंधइ ?, गोयमा !
सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा, एवं जाव वेमाणिण, पोहत्तिएसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो॥ (सूत्रं १८५) ४ा [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य हसे अने काइपण लेवाने उतावळो थाय? [उ०] हे गौतम ! हा, ते हसे अने उतावळो पण
थाय खरो. [प्र.] हे भगवन् ! जेम छमस्थ मनुष्य हसे अने उतावळो थाय तेम केवळी पण हसे अने उतावळो थाय? [उ०]हे गौतम ! | ए अर्थ समर्थ नथी-छमस्थ मनुष्यनी पेठे यावत-केवळी न हसे अने उतावळो पण न थाय. [प्र.] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्यनी पेठे | यावत्-केवळी हसे नही अने उतावळो थाय नहीं तेनुं शुं कारण ? [उ०] हे गौतम ! दरेक जीवो चारित्रमोहनीय कर्मना उदयथी हसे छे अने उतावळा थायछे अने केवळिने तो चारीत्रमोहनीय कर्मनो उदयज नथी माटे ते कारणथी छअस्थमनुष्यनी पेठे यावत्-केवळी
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