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५ शतके
| उद्देशः६ ॥३८॥
से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया जाव मणुस्सेहिं जे ते एवमाहंसु मिच्छा०, अहं पुण व्याख्या
जागोयमा! एवमातिक्खामि जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइण्णे निरयलोए नेरइएहिं (सूत्रं २०७) प्रज्ञप्ति
___[म.] हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे यावत् प्ररूपे छे के, जेम कोइ युवतिने युवान हाथमा हाथ ग्रहीने, (उभेला) ॥३८२॥ होय अथवा जेम आराओथी भीडाएली चक्रनी नाभी होय ए प्रमाणेज यावत् चारसे पांचवें योजन सुधी मनुष्यलोक, मनुष्योथी
खीचोखीच भरेलो छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे केम होइ शके ? [उ०] हे गौतम ! ते अत्यतीथिको जे यावत् मनुष्योथी, जे तेओ दए प्रमाणे कहे छे ते खोटुं छे, हे गौतम ! हुं वळी आ प्रमाणे कहुंछ के, एज प्रमाणे यावत् चारसो पांचसो योजन सुधी निरयलोक, नैरयिकोथी खोचोखीच भरेलो छे. ॥ २०७ ।।
नेरइया णं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए पहुत्तं पभू विउवित्तए १, जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयम्वो जाव दुरहियासे ॥ (सूत्र २०८)॥
[प्र०] हे भगवन् ! शुं नरयिको एकपणुं विकुर्ववा समर्थ छ ? के बहुपणु विकुर्ववा समर्थ छ ? [उ०] जेम जीवाभिगममूत्रमा आलापक छे. ते आलापक यावत् ' दुरहियास' शब्द सुधी अहिं जाणवो. ॥ २०८ ॥
आहाकम्म अणवजेत्ति मण पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ, नस्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा, एएणं गमेणं नेयव्वंकीयगडं ठविययं रइयं कंता रभत्तं दुभिक्खभत्तं वद्दलियाभत्तं गिलाणभत्तं सेज्जायरपिंडं रायपिंडं। आहाकम्म
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