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१.३७ ]
प्रथमोऽधिकारः
यस्यानन्तगुणा लोकं प्रपूर्य संचरन्त्यहो । सुरेशां हृदयेऽनन्तो वन्यो दद्याद् गुणान् स नः ॥२४॥ येन प्ररूपितो धर्मो द्विधा स्वर्मुक्तिशर्मणे । सुधियां धर्मचक्रेट् स धर्मो धर्माप्तयेऽस्तु मे ॥ २५॥ दुःकर्मशत्रवोऽसंख्याः कषायाक्षाद्युपद्रवाः । शाम्यन्ति यदूगिरा पुंसां तं शान्ति शान्तये स्तुवे ॥ २६ ॥ यदिव्यध्वनिनात्रासीद्रक्षा कुन्थ्वादिदेहिनाम् । कुन्थ्वादौ सदयं कुन्थु वन्दे कुन्थुकृपायतम् ॥ २७॥ यद्वचःशस्त्रघातेन दुर्धराः कर्मशात्रवाः । नश्यन्ति स्वेन्द्रियैः सार्धं सोऽरो मेऽस्त्वरिहानये ॥२८॥ कर्ममल्लविजेतारं त्रातारं शरणार्थिनाम् । भेत्तारं मोहशत्रूणां महिलं तच्छक्तये स्तुवे ॥ २९॥ मुन्यादिभ्यो ब्रतादीनि यो ददाति निरन्तरम् । सद्-व्रता पत्यै तमानौमि व्रताढ्यं मुनिसुव्रतम् ॥३०॥ नमीशं नमितारातिं त्रिजगन्नाथवन्दितम् । हतकर्मारिसंतानं तद्गुणाय स्तवीम्यहम् ॥३१॥ मोहकर्माक्षशत्रूणां मुखं भक्त्वाशु योऽद्भुतः । नेमिर्बाल्येऽपि जग्राह दीक्षां स्तौमि यमाय तम् ॥३२॥ यस्माल्लब्ध्वा महामन्त्रं नागो नागी च तत्फलात् । नागेन्द्रस्तस्त्रियात्राभूतं पार्श्व संस्तुवेऽनिशम् ॥३३॥ वीरं कर्मजये वीरं सम्मतिं धर्मदेशने । उपसर्गाग्नि संपाते महावीरं नमामि च ॥ ३४ ॥ एते तीर्थंकराः ख्याताश्चतुर्विंशतिरत्र हि । शास्त्रादौ संस्तुताः सन्तु विश्वसत्कार्यसिद्धये ॥३५॥ अतीता येऽपरेऽनन्तास्तीर्थं नाथाश्च संप्रति । सार्धद्वीपद्वये सन्ति श्रीसीमंधर मुख्यकाः ॥ ३६॥ त्रिजगद्देवसंघाच्र्या धर्मसाम्राज्यनायकाः । स्तुत्या वन्द्या मयास्यादौ सन्तु मे विघ्नहानये ॥३७॥
विमलनाथ मेरे द्वारा स्तुत होकर मेरे पापमलका नाश करें ||२३|| जिसके अनन्त गुण समस्त लोकको पुरकर अहो देवेन्द्रोंके हृदयोंमें संचरित हो रहे हैं ऐसे वन्द्य अनन्त देव हमें अपने गुणों को देवें ||२४|| जिनके द्वारा प्ररूपित मुनि श्रावक रूप दोनों प्रकारका धर्म सुज्ञानी जनों - को स्वर्ग-मुक्ति सुखका देनेवाला है, वे धर्मचक्रके स्वामी धर्मनाथ मेरे धर्मकी प्राप्तिके लिए हों ||२५|| जिनकी वाणीसे जीवोंके असंख्य दुष्कर्मरूप शत्रु और कषाय- इन्द्रियादिरूप उपद्रव शान्त हो जाते हैं, ऐसे शान्तिनाथकी मैं शान्ति प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ||२६|| जिनकी दिव्य ध्वनिके द्वारा इस लोकमें कुन्थु आदि छोटे-छोटे जन्तुओंकी भी रक्षा सम्भव हुई, जो उन क्षुद्र प्राणियोंपर सदा सदय हैं, ऐसे कुन्थुकृपापरायण कुन्थुनाथकी मैं वन्दना करता हूँ ||२७|| जिनके वचनरूप शस्त्राघातसे दुर्धरकर्मरूप शत्रु अपनी इन्द्रियरूपी सेनाके साथ नष्ट हो जाते हैं, ऐसे अरनाथ मेरे अरियोंके नाशके लिए सहायक हों ||२८|| कर्मरूप मल्लोंके विजेता, शरणार्थियोंके त्राता और मोहशत्रुके भेत्ता मल्लिनाथकी मैं उनकी शक्तिप्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ||२९|| जो मुनि आदि चतुर्विध संघके लिए निरन्तर व्रत आदि देते हैं, उन व्रत- परिपूर्ण मुनि सुव्रतनाथको मैं सद्व्रतोंकी प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ ||३०|| जिन्होंने शत्रुओंको नमाया है, जो तीन जगत्के नाथोंसे वन्दित हैं और कर्मशत्रुओं की सन्तानके विनाशक हैं ऐसे नमीश्वरकी मैं उनके गुणोंकी प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ||३१|| जिन्होंने मोहकर्म और इन्द्रिय- शत्रुओं के मुखका शीघ्र भंजन कर बाल- कालमें ही दीक्षा ग्रहण की, ऐसे अद्भुत नेमिनाथकी मैं संयमकी प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ||३२|| जिनसे महामन्त्र पाकर नाग और नागिनी उसके फलसे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए, उन पार्श्वनाथकी मैं अहर्निश स्तुति करता हूँ ||३३|| जो कर्मोंके जीतनेमें वीर हैं, धर्मका उपदेश देनेमें सन्मति - वाले हैं और उपसर्गरूप अग्नि-पात में भी महावीर हैं, ऐसे श्री वर्धमान स्वामीको नमस्कार करता हूँ ||३४|| इस भरत क्षेत्रमें ये चौबीस तीर्थंकर तीर्थ- प्रवर्तन से प्रख्यात हैं, अतः शास्त्रारम्भमें सम्यक् प्रकारसे मेरे द्वारा स्तुति किये गये ये सभी तीर्थंकर मेरे समस्त सत्कार्य की सिद्धिके लिए सहायक होवें ||३५||
अतीत कालमें जितने अनन्त तीर्थंकर हो गये हैं और वर्तमान कालमें श्रीसीमन्धर स्वामीको आदि लेकर अढ़ाई द्वीपमें जितने तीर्थंकर विद्यमान हैं, जो तीन जगत्के देवसमूहसे
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