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अष्टमोऽधिकारः
पञ्चकल्याणभोक्तारं दातारं त्रिजगच्छियः । बोतारं संसृतेः पुंसां वोरं तच्छक्तये स्तुवे ॥१॥ अथ मङ्गलधारिण्यः काश्चित्तस्याः सुराङ्गनाः । काश्चिन्मजनपालिन्यश्चान्यास्ताबूलदायिकाः ॥२॥ काश्चिन्महानसे लग्नाः शय्याविरचने पराः । पादप्रक्षालने काश्चिदासन् दिव्यप्रसाधने ॥३॥ काश्चिदिव्याः स्रजस्तस्यै दद्यः कल्पलता इव । क्षौमांशुकानि काश्चिच्चान्या रत्नाभरणानि च ॥४॥ उत्खातासिकराः काश्चिदङ्गरक्षाविधौ स्थिताः । तस्या अभीष्टभोगादीन् दातुं चान्यास्तदिच्छया ॥५॥ पुष्परेणुभिराकीण मार्जयन्ति नृपाङ्गणम् । काश्चिञ्चान्याः प्रकुर्वन्ति चन्दनच्छटयोक्षितम् ॥६॥ विचित्रं बलिविन्यासं रत्नचूर्णैः प्रकुर्वते । काश्चिद् धुशाखिपुष्पौधैरन्या उपहरन्ति च ॥७॥ काश्चिरखे तुङ्गहाग्रे तरला मणिदीपिकाः । निशासु बोधयन्ति स्म विन्वानस्तमोऽभितः ॥८॥ गतावंशकसंधानमासनेऽप्यासनापंणम् । स्थितौ च परितः सेवां तस्याश्चकः सुराङ्गनाः ॥९॥ कदाचिजलकेलीभिर्वनक्रीडाभिरन्यदा । अन्येधुर्मधुरैर्गीतैस्तत्सुतोत्थगुणान्वितैः ॥१०॥ परेचर्नर्तनै त्रप्रियैस्तूर्य त्रिकैः परैः । कथागोष्ठोभिरन्येद्यः प्रेक्षणगोष्ठीमिरन्यदा ॥११॥ इत्यायेत्परैर्दिव्यैर्विक्रियर्द्धिप्रभावजैः । विनोदैस्ता जिनाम्बाया देव्यश्चक्रुस्तरां सुखम् ॥१२॥
पंचकल्याणकोंके भोक्ता, तीन लोककी लक्ष्मीके दाता और संसारी जीवोंके त्राता श्री वीरनाथकी मैं उनकी शक्ति प्राप्तिके लिए स्तुति करता हूँ ॥१॥
भगवान के गर्भ में आनेके पश्चात् उन कुमारिका देवियोंमें से कितनी ही देवियाँ माताके आगे मंगल द्रव्योंको रखती थीं, कितनी ही देवियाँ माताको स्नान कराती थीं, कितनी ही ताम्बूल प्रदान करती थीं, कितनी ही रसोईके काममें लग गयीं, कितनी ही शय्या सजानेका काम करने लगीं, कोई पाद-प्रक्षालन कराती, कोई दिव्य आभूषण पहनाती, कोई माताके लिए कल्पलताके समान दिव्य मालाएँ बनाके देती, कोई रेशमी वस्त्र पहनने के लिए देती और कोई रत्नोंके आभूषण लाकर देती थी ॥२-४॥ कितनी ही देवियाँ माताकी शरीररक्षाके लिए हाथोंमें तलवार लिये खड़ी रहती और कितनी ही देवियाँ माताकी इच्छाके अनुसार उन्हें अभीष्ट भोगादिकी वस्तुएँ लाकर देती थीं ।।५।। कितनी ही देवियाँ पुष्प-परागसे व्याप्त राजांगणको साफ करतीं और कितनी ही चन्दनके जलका छिड़काव करती थीं ॥६॥ कितनी ही देवियाँ रत्नोंके चूर्णसे सांथिया आदि पूरती थीं, और कितनी ही कल्पवृक्षोंके पुष्पोंसे बने फूल-गुच्छक भेंट करती थीं ।।७। कितनी ही देवियाँ आकाशमें ऊँचे राजभवनके अग्रभागपर रातके समय प्रकाशमान मणि-दीपक जलाती थीं जो कि सब ओरके अन्धकारका नाश करते थे। माताके गमन करते समय कितनी ही देवियाँ वस्त्रोंको सँभालती थीं और उनके बैठते समय आसन-समर्पण करती थीं। माताके खड़े होनेपर वे देवियाँ चारों ओर खड़ी होकर उनकी सेवा करती थीं ॥८-९॥ वे देवियाँ कभी जलक्रीड़ाओंसे, कभी वनक्रीड़ाओंसे, कभी उसके गर्भस्थ पुत्रके गुणोंसे युक्त मधुर गीतोंसे, कभी नेत्र-प्रिय नृत्योंसे, कभी तीन प्रकारके बाजोंसे, कभी कथा-गोष्ठियोंसे और कभी दर्शनीय स्थलोंको दिखानेके द्वारा माताका मनोरंजन करती थीं ॥१०-११॥ इनको आदि लेकर विक्रिया ऋद्धिके प्रभावसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके अन्य दिव्य विनोदोंके द्वारा वे जिन-माताको सर्व प्रकारसे सुखी करती
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