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२१२ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१९.१४६आचाराख्यादिमाङ्गोक्ततपःक्रियाश्रतेर्विदाम् । प्रादुर्भूता रुचिर्यात्र सूत्रसम्यक्त्वमेव तत् ॥१४६॥ या तु बीजपदादानात्सूक्ष्मार्थश्रवणागुचिः । प्रादुर्भवति मव्यानां बीजदर्शनमेव तत् ॥१४७॥ याभूच्छुद्धा पदार्थानां संक्षेपोक्त्यान धीमताम् । संक्षेपदर्शनं तद्धि कथ्यते शर्मकारणम् ॥१४॥ विस्तरोक्त्या पदार्थानां प्रमाणनयविस्तरैः । यो निश्चयोऽत्र तत्सारं सम्यक्त्वं विस्तराह्वयम् ॥१४९॥ अवगाह्याङ्गवाधि च त्यक्त्वा वचनविस्तरम् । आदायात्रार्थमात्रं या रुचिस्तदर्थदर्शनम् ॥१५०॥ अङ्गाङ्गबाह्यसद्भावभावनातोऽत्र या रुचिः । जाता क्षीणकषायस्यावगाढं दर्शनं हि तत् ॥१५॥ केवलावगमालोकिताखिलार्थगता रुचिः । या सम्यक्त्वं परं तत्परमावगाठसंज्ञकम् ॥१५२॥ दशभेदं जिनेन्द्रोक्तं सम्यक्त्वमिति तत्त्वतः । तेषां मध्ये कियन्तस्ते तभेदाः सन्ति भूपते ॥१५३॥ त्वं दर्शनविशुद्धयाद्यैर्व्यस्तैः षोडशकारणैः । समस्तैश्च जगद्वन्धैरन्ते श्रीत्रिजगद्गुरोः ॥१५४॥ बद्धवात्र तीर्थकृनाम जगदाश्चर्यकारणम् । ध्रुवं रसप्रभामन्ते कर्मपाकेन यास्यसि ॥१५५।। तत्फलं तत्र भुक्त्वा चतुर्मिः कालान्दमानकैः । तस्मान्निर्गत्य मन्यस्त्वं महापद्माख्यतीर्थकृत् ॥१५६॥ भविष्यसि न संदेहो धर्मतीर्थप्रवर्तकः । आगाम्युत्सर्पिणीकाले प्रथमः क्षेमकृत्सताम् ॥१५७।। तस्मादासन्नमव्यस्त्वं मा भैषीः संसृतेर्यतः । भ्रमन्तः प्राणिनोऽनेकवारान् प्राङनरकं गताः ॥१५८॥ स्वस्य रत्नप्रभावाप्तिश्रवणाच्छुणिकस्तदा । विषण्णस्तं पुनर्नवेत्यपृच्छच्छीगणाधिपम् ॥१५९॥ भगवन्मत्पुरेऽत्रास्मिन् विशाले पुण्यधामनि । मां विनाधोगति कश्चिदन्यो यास्यति वा न च ॥१६॥
महामानवोंके पुराणोंको सुननेसे जो आत्म-निश्चय या धर्म-श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह लोकमें उपदेशनामक सम्यक्त्व है ॥१४५॥ आचारादि अंगोंमें कही तपश्चरणक्रियाके सुननेसे ज्ञानियोंको जो उसमें रुचि उत्पन्न होती है, वह सूत्रसम्यक्त्व है ।।१४६॥ बीजपदोंको ग्रहण करनेसे और उनके सूक्ष्म अर्थके सुननेसे भव्यजीवोंके जो तत्त्वार्थमें रुचि उत्पन्न होती है, वह बीज सम्यक्त्व है ॥१४७॥ जीवादि पदार्थोंके संक्षेप कथनको सुनकर ही जो बुद्धिमानों के हृदय में श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सुखकारण संक्षेपसम्यक्त्व कहा जाता है ॥१४८|| जीवादि पदार्थों के विस्तार-युक्त कथनको सुनकर प्रमाण और नयोंके विस्तारद्वारा जो धर्म में निश्चय उत्पन्न होता है, वह विस्तार सम्यक्त्व है ॥१४९।। द्वादशांगश्रुतरूप समुद्रका अवगाहन कर वचन-विस्तारको छोड़कर और अर्थमात्रको अवधारण कर जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अर्थसम्यक्त्व है ।।१५०।। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुतके रहस्य चिन्तनसे क्षीणकषायी योगीके जो दृढ़ रुचि उत्पन्न होती है, वह अवगाढ़सम्यक्त्व है ॥१५१॥ तथा केवलज्ञानके द्वारा अवलोकित समस्त पदार्थोंपर जो चरम सीमाको प्राप्त अत्यन्त दृढ़ रुचि उत्पन्न होती है वह परमावगाढ़ नामका सम्यक्त्व है ॥१५२।। इस प्रकार जिनेन्द्र देवने तात्त्विक दृष्टिसे सम्यक्त्वके दश भेद कहे हैं। हे राजन्, उनमें से कितने भेद तेरे हैं ॥१५३।। जगद्-वन्द्य दर्शनविशुद्धि आदि षोड़ा कारणोंमेंसे कुछ या सब कारणोंसे त्रिजगद्-गुरु श्री वर्धमानस्वामीके समीप जगत्में आश्चर्यका कारण तीर्थकर नामकर्म यहाँपर निश्चयसे बाँधकर जीवनके अन्तमें पूर्वोपार्जित कर्मके उदयसे रत्नप्रभापृथिवीवाले नरकमें जाओगे। वहाँपर उपार्जित कर्मोका फल भोगकर आगामी चार काल-प्रमाण अर्थात् चौरासी हजार वर्षोंके बाद वहाँसे निकलकर हे भव्य, तू महापद्मनामका धर्मतीर्थका प्रर्वतक, सज्जनोंका क्षेम-कुशलकर्ता, आगामी उत्सर्पिणी कालमें प्रथम तीर्थंकर होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।१५४-१५७॥ हे राजन् , तुम निकटभव्य हो, अब इस अल्पकालिक संसारके परिभ्रमणसे मत डरो। क्योंकि इसके भीतर परिभ्रमण करनेवाले प्राणी अनेक बार पहले नरक गये हैं ॥१५८॥ अपनी रत्नप्रभागत नरककी प्राप्तिकी बात सुनकर विषादको प्राप्त हुए श्रेणिकने पुनः श्री गौतमगणधरको नमस्कार करके इस प्रकार पूछा ।।१५९॥ हे भगवन् , इस विशाल, पुण्यधामवाले मेरे नगरमें
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