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१९.१४५] एकोनविंशोऽधिकारः
२११ येन व्रतेन लभ्यन्तेऽमुत्रदृश्योऽत्र संपदः । विना तेन न योग्यैका नेतुं कालकला क्वचित् ॥३२॥ विचिन्त्येति स गत्वाशु समाधिगुप्तयोगिनम् । नत्वा मुदाग्रहीद् भव्यो व्रतानि गृहमेधिनाम् ।। १३३॥ स्वर्गारखदिरसाराङ्गिदेवो भुक्त्वा सुखं महत् । स द्विसागरपर्यन्तं च्युत्वा पुण्यविपाकतः ॥१३४॥ सूनुः कुणिकभूपस्य श्रीमत्याश्च नृपोत्तमः । जातस्त्वं श्रेणिको नाम्ना भव्यश्रेणिशिवाग्रणीः ॥१३५॥ तत्कथाश्रवणात्प्राप्य तत्त्वे श्रद्धां परां नृपः । जिनेन्द्रधर्मगुर्वादौ पुनर्नत्वा पप्रच्छ तम् ।।१३६॥ देव मे महती श्रद्धा विद्यते धर्मकर्मणि । हेतुना केन न स्याच्च मनाग्वतगुणोऽधुना ॥१३७॥ उवाचेदं ततो योगी धोमंस्त्वं बद्धवानिह । प्रागेव नरकायुष्कं गाढमिथ्यात्वभावतः ॥१३॥ हिंसादिपञ्चपापाच्च बह्वारम्भपरिग्रहात् । अतीवविषयासक्त्या बौद्धभक्त्या वृषादृते ॥१३९॥ तेन दोषेण ते नास्ति मनावतपरिग्रहः । बद्धदेवायुषो यस्मात्स्वीकुर्वन्ति द्विधा व्रतम् ॥१४०॥ आज्ञाख्यं मार्गसम्यक्त्वं युपदेशाभिधं ततः । सूत्राह्वयं च बीजाख्यं संक्षेपाख्यं सविस्तरम् ॥१४॥ अर्थोत्थमवगाढं परमावगाढसंज्ञकम् । दशधेति सुसम्यक्त्वं सोपानं प्रथमं शिवे ॥१२॥ सर्वज्ञाज्ञानिमित्तेन षड्वव्यादिषु या रुचिः । जायते महती तत्स्यादाज्ञासम्यक्त्वगुत्तमम् ।।१४३॥ अत्र निःसङ्गनिश्चेलपाणिपात्रादिलक्षणम् । श्रुत्वा या मोक्षमार्गस्य श्रद्धा तन्मार्गदर्शनम् ॥१४॥ निषष्टिपुरुषादीनां पुराणश्रवणाच यः । सद्यः स्यानिश्चयोऽत्रैतदुपदेशाख्यदर्शनम् ॥१४५॥
लगा-अहो, व्रतको शीघ्र प्राप्त हुए उत्तम फलको देखो ॥१३१॥ जिस व्रतके द्वारा परलोकमें ऐसी स्वर्ग-सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं, उस व्रतके बिना मनुष्यको कालकी एक कला भी कभी बिताना योग्य नहीं है ।।१३२।। ऐसा विचार कर और शीघ्र ही समाधिगुप्त मुनिराजके पास जाकर, उन्हें नमस्कार कर उस भव्यने. गृहस्थोंके व्रतोंको हर्षके साथ ग्रहण कर लिये ॥१३३॥
खदिरसारका जीव वह देव दो सागरोपम काल तक वहाँके महासुखोंको भोगकर और स्वर्गसे च्युत होकर पुण्यके विपाकसे कुणिक राजा और श्रीमती रानीके श्रेणिक नामसे प्रसिद्ध नृपोत्तम और भव्य जीवोंकी पंक्ति में-से मोक्ष जाने में अग्रेसर पुत्र हआ है ॥१३४१३५।। अपने पूर्वजन्मकी इस कथाको सुननेसे तत्त्वोंमें जिनेन्द्रदेव, जिनधर्म और जिनगुरु
आदिमें परम श्रद्धाको प्राप्त होकर उन्हें नमस्कार कर पुनः पूछा ॥१३६।। हे देव, धर्मकार्यमें मेरी भारी श्रद्धा है, किन्तु किस कारणसे अभी तक मेरे कोई जरा-सा भी व्रत या गुण धारण करनेका भाव नहीं हो रहा है ॥१३७॥ यह सुनकर गौतम गणधरने कहा-हे सुधी, तीन मिथ्यात्वभावके द्वारा आजसे पूर्व ही तूने इसी जीवनमें हिंसादि पाँचों पापोंके आचरणसे, बहुत आरम्भ और परिग्रहसे, अत्यन्त विषयासक्तिसे और सत्य धर्मके विना बौद्धोंकी भकिसे नरकायुको बाँध लिया है, अतः उस दोषसे तेरे रंचमात्र भी व्रतका परिग्रह नहीं है। क्योंकि देवायुको बाँधनेवाले जीव ही मुनि और श्रावकके दो भेदरूप धर्मको स्वीकार करते हैं . ॥१३८-१४०।। (अपने नरकायुका बन्ध सुनकर राजा श्रेणिक मन ही मन विचारने लगा-अहो भगवान् , तब इससे मेरा कैसे छुटकारा होगा? उसके मनकी यह बात जानकर गौतमने कहा-) संसारसे उद्धार करनेवाला सम्यक्त्व है । वह दश प्रकारका है-१ आज्ञासम्यक्त्व, २ मार्ग सम्यक्त्व, ३ उपदेशसम्यक्त्व, ४ सूत्रसम्यक्त्व, ५ बीजसम्यक्त्व, ६ संक्षेपसम्यक्त्व, ७ विस्तारसम्यक्त्व, ८ अर्थोत्पन्नसम्यक्त्व, ९ अवगाढ़सम्यक्त्व और १० परमावगाढ़सम्यक्त्व । यह दश प्रकारका सम्यक्त्व मोक्षरूप प्रासाद में जानेके लिए प्रथम सोपान है ॥१४१-१४२।। सर्वज्ञदेवकी आज्ञाके निमित्तसे जीवादि छह द्रव्योंमें दृढ़ रुचि या श्रद्धा होती है, वह उत्तम आज्ञासम्यक्त्व है ॥१४३।। यहाँ पर परिग्रह-रहित निश्चेल (वस्त्र-रहित दिगम्बर ) और पाणिपात्रभोजी साधु आदिके लक्षणवाले निर्ग्रन्थ धर्मको मोक्षमार्गकी जो दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह मार्ग सम्यक्त्व है ॥१४४॥ तिरेसठ शलाका पुरुष आदि
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