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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १९.१७५
ततोऽग्रे कपिरोमाख्यवल्लीजालं समाप्य सः । श्रावको मद्देवोऽयमित्युक्त्वा माययानमत् ॥ १७५ ॥ कराभ्यां सुन्दरश्छिन्दन् विगृह्णस्तत्तदीर्षया । सर्वाङ्गे तत्कृतासह्य कण्डूयबाधनात्तराम् ॥१७६॥ भीत्वा तस्माज्जजल्पेति सत्यस्ते देव एव हि । ततो विहस्य जैनोऽवादीत्तत्संबोधहेतवे ॥१७७॥ रे भद्रतरवोऽत्रै निग्रहानुग्रहच्युताः । एकेन्द्रियत्वमापन्नाः पापादेवा न जातुचित् ॥१७८॥ किन्तु तीर्थकरा एव भुक्तिमुक्तिकराः सताम् । त्रिजगज्ज्ञानतोऽभ्यर्च्य देवाः स्युर्नात्र चापरे ॥ १७९ ॥ इत्यादिवचनैस्तस्य देवमौढ्यं निराकरोत् । ततः क्रमाद् द्विजौ गच्छन्तौ गङ्गातीरमागतौ ॥१८०॥ तीर्थनीरमिदं नूनं पवित्रं शुद्धिकारणम् । इत्युक्त्वा तज्जलैः स्नात्वा मिथ्यादृष्टिरवन्दत ॥ १८१ ॥ तस्मै मोक्तुकामाय भुक्त्वा भोक्तुं स्वयं ददौ । स्वोच्छिष्टानं च गङ्गाम्बुमिश्रितं श्रावकोत्तमः ॥ १८२ ॥ तं दृष्ट्वाहं कथं भुञ्जेऽन्योच्छिष्टमिति सोऽवदत् । ततो जैन उवाचेदं तस्य सन्मार्गसिद्धये || ३८३ ॥ मित्राशुद्धं मयोच्छिष्टं गङ्गाम्बु यदि निन्दितम् । गर्दभाद्यैस्तदुच्छिष्टं कथं शुद्धं च शुद्धिदम् ॥ १८४॥ अतो जलं न तीर्थं न जातु शुद्धिकरं नृणाम् । स्नानं तथाङ्गिघाताच्च केवलं पापकारणम् ॥ १८५ ॥ देहोऽशुच्याकरे नित्यं स्वभावान्निर्मलोऽसुमान् । शुद्धिं स्नानेन नायाति तस्मात्स्नानं वृथाधदम् ॥१८६॥ स्नान यदि शुद्धाः स्युर्मिथ्यात्वादिमलीमसाः । तर्हि मत्स्यादयो वन्द्याः शुद्धये न दयान्विताः ॥ १८७॥ वित्तीर्थमेवात्र तद्वाक्यामृतमुत्तमम् । विद्धि शुद्धिकरं पुंसामन्तः पापमलापहम् ॥ १८८ ॥
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वृक्ष पाप
तोड़ दिया ||१७४|| वहाँसे आगे जानेपर कपिरोमा ( करेंच ) नामकी वेलिके समूहको देखकर उस अर्हद्दास श्रावकने 'यह मेरा देव है' ऐसा कहकर मायाचारसे उसे नमस्कार किया || १७५ || यह देखकर उस सुन्दर ब्राह्मण-पुत्रने पहलेकी ईर्ष्यासे उसे दोनों हाथोंसे उखाड़कर और उसकी फलियों को मसलकर सारे शरीरमें रगड़ डाला । उसकी रगड़से उसके सारे शरीरमें असह्य वेदना हुई । उससे डरकर वह अर्हद्दाससे बोला- अहो, तेरा देव सच्चा है । तब वह जैनी हँसकर उसके सम्बोधनके लिए बोला ।।१७६-२७७॥ अरे भद्र, उदयसे यहाँ एकेन्द्रिय वनस्पतिकी पर्यायको प्राप्त हैं। ये किसीका निग्रह या अनुग्रह करनेमें असमर्थ हैं, ये कभी देव नहीं कहे जा सकते || १७८ ॥ किन्तु सच्चे देव तो तीर्थंकर ही हैं, जो कि सांसारिक सुख और मुक्तिको देनेवाले हैं, तीन लोकके ज्ञानसे युक्त हैं। वे ही पूजनीय देव हैं। उनके सिवा इस लोकमें और कोई देव नहीं है || १७९ || इत्यादि वचनोंसे अर्हद्दासने उस ब्राह्मण-पुत्रकी देव मूढ़ताको दूर किया । तत्पश्चात् क्रमसे चलते हुए वे दोनों गंगा नदी के किनारे आ पहुँचे || १८०|| तब उस मिथ्यादृष्टि ब्राह्मणपुत्रने 'यह तीर्थजल निश्चयसे पवित्र है, शुद्धिका कारण है' यह कहकर उसके जलसे स्नान कर उसकी वन्दना की ॥१८१॥ वहाँपर उस श्रावकोत्तम अर्हद्दासने भोजन किया और खानेका इच्छुक देखकर उस ब्राह्मणपुत्र को अपने खानेसे बचे हुए जूठे अन्नको गंगा के जलसे मिश्रित कर उसे खाने के लिए दिया । यह देखकर वह बोला कि इन जूठे अन्नको मैं कैसे खा सकता हूँ ? तब उसको सन्मार्ग प्राप्त कराने के लिए वह जैनी बोला- हे मित्र, गंगाजलसे मिश्रित भी यह जूठा अन्न यदि निन्दनीय है तो गधे आदिसे जूठा किया गया जल कैसे शुद्ध और शुद्धिको देनेवाला हो सकता है ।। १८२ - १८४॥ अतः न जल पवित्र है, न जलस्थान तीर्थ है और न उसमें किया गया स्नान मनुष्यों की शुद्धि कर सकता है। किन्तु जलमें स्नान करनेसे अनेक प्राणियोंका नाश होता है, अतः वह केवल पापका कारण ही है || १८५ || यह शरीर स्वभावसे अशुचिका भण्डार है, किन्तु इसके भीतर विराजमान आत्मा शुद्ध है, निर्मल है । स्नानसे पवित्रता नहीं आती है, इस कारण स्नान करना व्यर्थ ही पापोंका उपार्जन करनेवाला है || १८६|| मिथ्यात्व आदि भावमलसे मलिन जीव यदि स्नान करनेसे शुद्ध होते होवें, तब तो नित्य ही जलमें स्नान करनेवाले मगर-मच्छादि वन्दन करनेके योग्य हैं, दयायुक्त मनुष्य नहीं ||१८७|| इस
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