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श्री-वोरवर्धमानचरिते
[१९.२२५
न कीर्तिपूजादिकलाभलोभतो नाहो कवित्वाद्यभिमानतोऽत्र ।
ग्रन्थः कृतोऽयं परमार्थबुद्धया स्वान्योपकाराय च कर्महान्यै ॥२५५॥ ... वीरनाथगुणकोटिनिबद्धं पावनं वरचरित्रमिदं च ।
शोधयन्तु सुविदश्च्युतदोषाः सर्वकीर्तिगणिना रचितं यत् ॥२५६॥ यत्किंचिद्विहितं मयात्र च शुभे ग्रन्थे प्रमादाक्वचि
दज्ञानादथवाक्षरादिरहितं सन्ध्यादिमात्रोज्झितम् । तत्सर्व मम तुच्छधीश्रुतविदो दृष्ट्वा परं साहसं
___ सवृत्तोद्धरणे समं जिनगिरा यूयं क्षमध्वं विदः ॥२५७॥ ये पठन्ति निपुणा, श्रुतमेतत्पाठयन्ति गुणिनो गुणरागात् । ते समाप्य विरतिं विषयादौ ज्ञानतीर्थमचिराच्च लभन्ते ॥२५८॥ लिखन्ति ये ग्रन्थमिदं पवित्रं वा लेखयन्ते भुवि वर्तनाय ।
ते ज्ञानदानेन किलाप्य सौख्यं विश्वोद्भवं केवलिनो भवन्ति ॥२५९।। सर्वे तीर्थकराः परार्थजनकाः श्रीभुक्तिमुक्तिप्रदाः
सिद्धा अन्तविवर्जिता निरुपमास्त्रैलोक्यचूडोपमाः। पञ्चाचारपरायणाश्च गणिनः श्रीपाठकाः सद्विदः
उद्योगाङ्कितसाधवः शुमकरं कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥२६०।। प्रवरगुणसमुद्रं धर्मरत्नादिखानि
....सुशरणमिहमव्यानां महेन्द्रादिपूज्यम् । सुरशिवगतिमूलं शासनं श्रीजिनस्य
त्रिभुवनगतभव्यैर्यात वृद्धिं धरिभ्याम् ॥२६॥
प्रदान करें। जिन वीर जिनेन्द्रने मुक्तिरूपी कुमारीको विधिपूर्वक स्वीकार किया है, वे प्रभु वह अनन्त निर्मल मुक्तिलक्ष्मी सुख प्राप्तिके लिए मुझे देवें।।२५४।। मुझ सकलकीर्तिने यह ग्रन्थ कीति, पूजा के लाभ या किसी प्रकारके लोभसे नहीं रचा है और न कविपनेके अभिमानसे ही रचा है, किन्तु इसकी रचना परमार्थ बुद्धिसे अपने और अन्यके उपकारके लिए तथा अपने कर्मोके विनाशके लिए की है ॥२५५।। वीर जिनेन्द्रके कोटि-कोटि गुणोंसे निबद्ध यह पावन श्रेष्ठ चरित्र, जिसे सकलकीर्ति गणीने रचा है, उसे दोषोंसे रहित सुज्ञानी जन शुद्ध करें ॥२५६|| इस शुभ ग्रन्थमें मेरे द्वारा प्रमादसे, अथवा अज्ञानसे यदि कहीं कुछ अक्षरादिसे रहित, या सन्धि-मात्रासे रहित अशुद्ध या असम्बद्ध लिखा गया हो, तो श्रुतवेत्ता ज्ञानी जन इस उत्तम चरित्रके जिन वाणीसे उद्धार करने में मुझ तुच्छ बुद्धिका भारी साहस देखकर आप लोग मुझे क्षमा करें ।।२५७॥ जो निपुण बुद्धिवाले लोग इस शास्त्रको पढ़ते हैं और गुणियोंके गुणानुरागसे दूसरोंको पढ़ाते हैं वे अपने विषय-कषायादिमें विरतिभावको प्राप्त होकर केवलज्ञानरूपी ज्ञानतीर्थको शीघ्र प्राप्त करते हैं ॥२५८।। जो भव्य श्रावकजन इस पवित्र ग्रन्थको लिखते हैं और भूमण्डल पर प्रसार करनेके लिए दूसरोंसे लिखाते हैं, वे अपने इस ज्ञानदानके द्वारा विश्व में उत्पन्न होनेवाले सुखोंको प्राप्त कर निश्चयसे केवलज्ञानी होते हैं ॥२५९॥ परके उपकारक, सांसारिक लक्ष्मी, स्वर्गीय भोग और मुक्तिके प्रदाता, सभी तीर्थकर, अन्त-रहित उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त, उपमासे रहित और तीन लोकके चूड़ामणि, सभी सिद्ध भगवन्त, पंच आचारोंमें परायण, सभी आचार्य, उत्तम श्रुतवेत्ता, सभी उपाध्याय और आत्म-साधनके उद्योगसे युक्त, सभी साधुजन आप लोगोंका शुभ करनेवाला.मंगल करें ॥२६०।। यह वीर जिनेन्द्रदेवका चरित गुणोंका समुद्र है, धर्मरत्न आदिकी खानि है, भव्योंको
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