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१९२ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१८.२८स्वसंवेदनबोधेन स्वस्यैव परमात्मनः । अन्तरे यत्परिज्ञानं तज्ज्ञानं निश्चयाह्वयम् ॥२८॥ त्यक्त्वाऽन्तर्बाह्यसंकल्पान् स्वरूपे यनिजात्मनः । चरणं ज्ञानिनां तत्स्याच्चारित्रं निश्चयाभिधम् ॥२९॥ एतद्रत्नत्रयं सर्वबाह्यचिन्तातिगं परम् । निर्विकल्पं भवेत्साक्षात्तद्भवे मुक्तिदं सताम् ॥३०॥ द्वेधायं मुक्तिमार्गोऽत्र मुक्तिस्त्रीजनको महान् । भव्यैः सेव्योऽनिशं छित्वा मोहपाशं मुमुक्षुभिः ॥३३॥ निर्वाणं ये गता भव्या यान्ति यास्यन्ति भूतले । प्रतिपाल्यं द्विधेदं ते केवलं जातु नान्यथा ॥३२॥ मुक्तेर्नित्यं फलं ज्ञेयमन्तातीतं सुखं महत् । सम्यक्त्वादिगुणैः सार्धमष्टमिः परमैः परम् ॥३३॥ संसारजलधौ पाताद्य उदधृत्य स्वयं यतः । सेव्यमानो विधत्तेऽहो राज्ये लोकत्रयाग्रिमे ॥३४॥ स धमोहि द्विधा प्रोक्तः स्वर्गमुक्तिसुखप्रदः । सुगमा श्रावकाणां स दुःकरो योगिनां परः ॥३५॥ सप्तव्यसनसंत्यक्ता ह्यष्टमूलगुणान्विताः । दृग्विशुद्धिश्च या साद्या प्रतिमा दर्शनामिधा ॥३६॥ पञ्चैवाणुव्रतान्यत्र त्रिधा गुणव्रतानि च । शिक्षाव्रतानि चत्वारि द्वादशेति व्रतानि वै ॥३७॥ मनोवचनकायैश्च साङ्गिनां कृतादिमिः । रक्षणं क्रियते यत्नाद्यत्तदाद्यमणुनतम् ॥३८॥ एतत्सर्वव्रतानां च मूलं विश्वाङ्गिरक्षकम् । गणानामाकरीभूतं धर्मबीजं जिनः स्मृतम् ॥३९॥ वचः सत्यं हितं सारं ब्रूयते यद्वृषाकरम् । असत्यं निन्दितं त्यक्त्वा तद्वितीयमणुव्रतम् ॥४०॥ सत्येन वचसा कीर्तिः प्रादुर्भवति मारती । कलाविवेकचातुर्यगुणैः साधं च धीमताम् ॥४१॥ परस्वं पतितं स्थूलं नष्टं वा स्थापितं क्वचित् । ग्रामादौ गृह्यते यन्न तृतीयं तदणुव्रतम् ॥४२॥
अपने भीतर परिज्ञान है, वह निश्चय सम्यग्ज्ञान है ।।२८|| अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकारके संकल्पोंको त्याग कर जो अपनी आत्माके स्वरूपमें विचरण करना, वह ज्ञानियोंका निश्चय सम्यक चारित्र है ॥२९।। यह निश्चय रत्नत्रय सर्व बाह्य चिन्ताओंसे रहित और निर्विकल्प है तथा उसी भवमें सज्जनोंको साक्षात् मोक्षका देनेवाला है ॥३०॥ निश्चय और व्यवहाररूप यह दोनों प्रकारका मोक्षमार्ग मुक्तिस्त्रीका जनक है, महान् है। अतः मोक्षके इच्छुक भव्योंको मोक्षकी आशा छोड़कर निरन्तर उसे सेवन करना चाहिए ॥३१।। इस भूतलपर भूतकालमें जो भव्य जीव मोक्ष गये हैं, वर्तमानमें जा रहे हैं, और आगे जायेंगे, इस द्विविध रत्नत्रयको प्रतिपालन करके ही जायेंगे, अन्य प्रकारसे कभी कोई मोक्ष नहीं जा सकता ॥३२॥ मुक्तिका नित्य फल अनन्त महान् सुख है। वह परम सुख सम्यक्त्व आदि आठ परम गणोंके साथ प्राप्त होता है ॥३३॥
जो संसार-समुद्रसे उद्धार कर सेवन करनेवाले पुरुषको तीन लोकके अग्रिम मुक्तिराज्यमें स्वयं स्थापित करे, वह स्वर्ग और मुक्तिके सुखोंको देनेवाला धर्म दो प्रकारका कहा गया है-पहला श्रावकोंका धर्म जो पालन करने में सुगम है और दूसरा मुनियोंका धर्म जो पालन करने में कठिन है ॥३४-३५।। इनमें श्रावक धर्म ग्यारह प्रतिमारूप है। जो सातों व्यसनोंके त्यागी हैं, आठ मूलगुणोंसे युक्त हैं और निर्मल सम्यग्दर्शनके धारक हैं, वे जीव दर्शन नामकी प्रतिमाके धारी हैं ॥३६।। जो इस लोकमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत इन बारह व्रतोंको धारण करते हैं वे श्रावक दूसरी व्रतप्रतिमाके धारी हैं ॥३७॥ मन वचन कायसे और कृत कारित आदिसे त्रस प्राणियोंका रक्षण यत्नसे किया जाता है, वह प्रथम अहिंसाणुव्रत है ॥३८।। यह अहिंसाणुव्रत सर्व व्रतोंका मूल है, विश्वके प्राणियोंका रक्षक है, गुणोंका निधान है और धर्मका बीज है, ऐसा जिनेन्द्रोंने कहा है ॥३९॥ जो निन्दित असत्य वचनको छोड़कर धर्मके निधानस्वरूप हितकारी सारभूत सत्य वचन बोले जाते हैं वह दूसरा सत्याणुव्रत है ॥४०॥ सत्य वचनसे कला विवेक और चातुर्य आदि गुणों के साथ बुद्धिमानोंके कीर्ति और सरस्वती प्रकट होती है ॥४१॥ जो ग्रामादिक में पतित, नष्ट या कहीं पर स्थापित परधनको ग्रहण नहीं करता वह तीसरा अचौर्याणुव्रत है ॥४२॥
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