Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 238
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१९.५७ शक्रादिवेष्टितस्यास्यासातोदयातिमन्दतः । अनन्तचतुराब्यस्य नोपसर्गो नरादिजः ॥५॥ चतुर्मुखश्चतुर्दिक्षु दृश्यते त्रिजगद्गुरुः । गणेादशभिः सर्वसमायां किल सन्मुखः ॥५४॥ दुर्घातिकर्मनाशेन केवलज्ञानचक्षुषः । स्वामित्वं विश्वविद्यानामासीद्विश्वार्थदर्शकम् ॥५५॥ न छाया दिव्यदेहस्य जातून्मेषो न नेत्रयोः । वृद्धिर्न नखकेशानां जगन्नाथस्य जायते ॥६०॥ अनन्यविषया एते दशैवातिशया विमोः । प्रादुरासन् स्वयं दिव्याश्चतुर्धात्यरिघातनात् ॥६॥ सर्वार्धमागधीभाषा सर्वाङ्गध्वनिसंभवा । सर्वाक्षरदिव्याजी समस्ताक्षरनिरूपिका ॥२॥ सर्वानन्दकरा पुंसां सर्वसंदेहनाशिनी । विभोरस्ति द्विधाधर्मविश्वतत्त्वार्थसूचिका ॥६३॥ कृष्णाहिनकुलादीनां जातिकारणवैरिणाम् । जायते परमा मैत्री बन्धूनामिव सद्गुरोः ॥६४॥ सर्व फलपुष्पादीन् फलन्ति तरवोऽखिलाः । दर्शयन्त इवात्यन्तं फलं सुतपसां प्रमोः ॥६५॥ आस्थानमण्डले चास्य धर्मराजस्य सर्वतः । मही रत्नमयी दिव्याभवदादर्शसंनिभा ॥६६॥ व्रजन्तं त्रिजगन्नाथं जगत्संबोधनोद्यतम् । प्राणिशर्माकरोऽन्वेति सुगन्धिः शिशिरो मरुत् ॥६७॥ विभोनिमहानन्दादानन्दो धर्मशर्मकृत् । जायते परमः पुंसां सर्वदा शोकिनामपि ॥६॥ मरुत्सुरः समास्थानात्तृणकोटादिवर्जितम् । योजनान्तरभूमागं गुरोः कुर्यान्मनोहरम् ॥६९॥ स्तनिताख्योऽमरो मक्त्या विद्युन्मालादिभूषिताम् । गन्धोदकमयीं वृष्टिं कुरुते परितो जिनम् ॥७०॥ दिव्यकेसर-पत्राणि हेमरत्नमयान्यपि । महादीप्राणि पद्मानि सप्त सप्तप्रमाणि च ॥७॥ भोक्ता वीतरागी भगवान्के असाता कर्मके अति मन्द उदय होनेसे कवलाहाररूप भोजन नहीं होता है तथा इन्द्रादिसे वेष्टित और अनन्तचतुष्टयके धारक भगवान के मनुष्यादि कृत उपसगे भी नहीं होता है ।।५६-५७। समवशरणमें तथा विहार करते समय सर्वत्र होनेवाली व्याख्यानसभाओंमें द्वादश गणोंके द्वारा त्रिजगद्गुरु चारों दिशाओंमें चार मुखवाले दिखाई देते हैं ॥५८॥ दुष्ट घातिकर्मोके विनाशसे केवलज्ञाननेत्रवाले भगवान्के समस्त विद्याओंका विश्वार्थदर्शक स्वामित्व प्राप्त हो गया था ॥५९॥ तीर्थकरके दिव्यदेहकी छाया नहीं पड़ती है, उनके नेत्रोंकी कभी भी पलकें नहीं झपकती हैं और न उस त्रिलोकीनाथके नख और केशोंकी वृद्धि ही होती है ॥६०। इस प्रकार अन्य साधारण जनोंमें नहीं पाये जानेवाले ये दशों दिव्य अतिशय चार घातिकर्मोके नाशसे प्रभुके स्वयं ही प्रकट हो गये थे ॥६१।। तीर्थंकर प्रभुकी भाषा सर्वार्ध-मागधी थी जो कि सर्वाङ्गसे उत्पन्न हुई ध्वनिस्वरूप थी। वह सर्व अक्षररूप दिव्य अंगवाली, समस्त अक्षरोंकी निरूपक, सर्वको आनन्द करनेवाली, पुरुषोंके सर्व सन्देहोंका नाश करनेवाली, दोनों प्रकारके धर्म और समस्त तत्त्वार्थको प्रकट करनेवाली थी ।।६२-६३॥ सद्गुरुके प्रभावसे कृष्ण सर्प और नकुल आदि जाति स्वभावके कारण वैर पाले जीवोंके बन्धुओंके समान परम मित्रता हो जाती है ॥६४|| प्रभुके प्रभावसे सभी वृक्ष सर्व ऋतुओंके फल-पुष्पादिको प्रभुके उत्तम तपोंका अति महान फल दिखलाते हएके समान फलने-फलने लगे ॥६५॥ इस धर्म सम्राटके सभामण्डलमें ओर दर्पणके समान निर्मल दिव्य रत्नमयो हो गयी ॥६६।। जगत्को सम्बोधन करनेमें उद्यत और विहार करते हुए त्रिलोकीनाथके सर्व ओर सर्व प्राणियोंको सुख करनेवाला शीतल मन्द सुगन्धि वाला पवन बहने लगता है ॥६॥ तीर्थंकर प्रभुके ध्यान-जनित महान् आनन्दसे सर्वदा शोकमुक्त पुरुषोंके भी धर्म और सुखका करनेवाला आनन्द प्राप्त होता है ।।६८।। पवनकुमारदेव त्रिजगद्गुरुके सभास्थानसे एक योजनके अन्तर्गत भूमिभागको तृण, कंटक और कीड़े आदिसे रहित एवं मनोहर कर देते हैं ।।६९।। मेघकुमार नामक देव भक्तिसे विद्युन्माला आदिसे युक्त गन्धोदकमयी वर्षा जिनभगवान्के सर्व ओर करते हैं ।।७०|| प्रभुके गमन करते समय उनके चरण-कमलोंके नीचे, आगे और पीछे सात-सात संख्याके प्रमाण-युक्त, For Private And Personal Use Only

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