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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१९.२७
भवत्तीर्थविहारण केचिद्भव्या भवस्थितिम् । हत्वा तपोसिना मोक्षं यास्यन्ति सत्सुखाम्बुधिम् ॥२७॥ अहमिन्द्रपदं केचित्साधयिष्यन्ति योगिनः । वृत्तेन वापरे स्वर्ग त्वत्सद्धर्मोपदेशतः ॥२४॥ त्वयोपदिष्टसन्मार्ग प्राप्येशान च मोहिनः । मोहाराति हनिष्यन्ति पापिनः पापविद्विषम् ॥२९॥ मोक्षद्वीपान्तरं नेतुं भव्यान् दक्षस्त्वमेव च । सार्थवाह इवाक्षान्तश्चौरान हन्तुं महाभटः ॥३०॥ अतो देव विधेहि त्वं विहारं धर्मकारणम् । अनुग्रहाय मन्यानां मोक्षमार्गप्रवृत्तये ॥३१॥ भगवन् भव्य शस्यांस्त्वं मिथ्यादुर्भिक्षशोषिणः । धर्मामृतप्रसेकेनोद्धरेश स्वःशिवाप्तये ॥३२॥ जगत्संतापिनं मोहाराति जयाद्य दुर्जयम् । देव पुण्यात्मनां धर्मोपदेशबाणपङ्क्तिभिः ॥३३॥ यतः सजमिदं वासीद्धर्मचक्रं सुरैर्धतम् । मिथ्याज्ञानतमोहन्तृ विजयोद्यमसाधनम् ॥३४॥ तथा संमुखमायातः कालोऽयं नाथ ते महान् । उपदेष्टुं च सन्मार्ग निराकर्तुं हि दुष्पथम् ॥३५॥ अतो देवात्र किं साध्यं बहुनोक्तेन संप्रति । विहृत्य स्वार्थखण्डस्थान् मन्यान् पुनीहि सगिरा ॥३६॥ यतो न त्वत्समोऽन्योऽस्ति स्वर्गमुक्त्यध्वदर्शकः । दुर्मार्गान्धतमोहन्ता क्वचित्कालेऽपि धीमताम् ॥३७॥ अतो देव नमस्तुभ्यं नमस्ते गुणसिन्धवे । नमोऽनन्तचिदेऽनन्तदर्शिनेऽनन्तशर्मणे ॥३८॥ नमोऽनन्तमहावीर्यात्मने दिव्यसुमूर्तये । नमोऽद्भुतमहालक्ष्मीभूषिताय विरागिणे ॥३९॥ नमोऽसंख्यामरस्त्रीभिताय ब्रह्मचारिणे । नमो दयाप्तचित्ताय मोहाद्यरिविघातिने ॥४०॥ नमस्ते शान्तरूपाय कर्मारिजयिने सते । नमस्ते विश्वनाथाय मुक्तिस्त्रीवल्लभाय च ॥४१॥
॥२५-२६॥ आपके तीर्थ विहारसे कितने ही भव्य जीव तपरूप खड्गके द्वारा संसारकी स्थिति का घात कर उत्तम सुखके समुद्र ऐसे मोक्षको प्राप्त होंगे ॥२७॥ कितने ही योगीजन चारित्र धारण कर अहमिन्द्र पदको सिद्ध करेंगे और कितने ही जीव आपके सत्यधर्मके उपदेशसे स्वर्गको जायेंगे ||२८॥ हे ईश, इस लोकमें आपके द्वारा उपदिष्ट सन्मार्गको प्राप्त होकर मोही जीव अपने मोह-शत्रुका घात करेंगे और पापी जीव अपने पापशत्रुका विनाश करेंगे ॥२९॥ हे नाथ, भव्यजीवोंको मोक्षरूपी द्वीपान्तर ले जानेके लिए सार्थवाहके समान आप ही दक्ष हैं और इन्द्रिय-कषायरूपी अन्तरंग चोरोंको मारनेके लिए आप ही महाभट हैं ॥३०॥ अत एव हे देव, भव्यजीवोंके अनुग्रहके लिए और मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति के लिए धर्मका कारणभूत विहार कीजिए ॥३१॥ हे भगवन, मिथ्यात्वरूपी दुर्भिक्षसे सूखनेवाले भव्यजीवरूपी धान्योंका धर्मरूप अमृतके सिंचनसे स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्तिके लिए हे ईश, उद्धार कीजिए ॥३२॥ हे देव, जगत्को सन्तापित करनेवाले, दुर्जय मोहशत्रुको पुण्यात्मा जनोंके लिए धर्मोपदेशरूप बाणोंकी पंक्तियोंसे आज आप जीतें ॥३३॥ क्योंकि देवोंके द्वारा मस्तकपर धारण किया हुआ, मिथ्याज्ञानरूप अन्धकारका नाशक, विजयके उद्यमका साधक यह धर्मचक्र सजा हुआ उपस्थित है ॥३४॥ तथा हे नाथ, सन्मार्गका उपदेश देनेके लिए और कुमार्गका निराकरण करनेके लिए यह महान् काल आपके सम्मुख आया है ॥३५॥ अतएव हे देव, इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? अब आप विहार करके इस उत्तम आर्यखण्डमें स्थित भव्य जीवोंको अपनी सद्वाणीसे पवित्र कीजिए ॥३६॥ क्योंकि किसी भी कालमें आपके समान बुद्धिमानोंके कुमार्गरूप घोर अन्धकारका नाशक और स्वर्ग-मोक्षक मार्गका दर्शक अन्य कोई नहीं है ॥३७॥ अतः हे देव, आपके लिए नमस्कार है, गुणोंके समुद्र आपको नमस्कार है, अनन्तज्ञानी, अनन्त दर्शनी और अनन्त सुखी आपको मेरा नमस्कार है ॥३८।। अनन्त महावीर्यशाली और दिव्य सुमूर्ति आपको नमस्कार है, अद्भुत महालक्ष्मीसे विभूषित होकरके भी महाविरागी आपको नमस्कार है ॥३९|| असंख्य देवांगनाओंसे आवृत होनेपर भी ब्रह्मचारी आपको नमस्कार है । मोहारि शत्रुओंके नाशक होनेपर भी दयाई चित्तवाले आपको नमस्कार है ॥४०॥ कर्मशत्रुके विजेता होनेपर भी शान्तरूप आपको नमस्कार है, विश्वके नाथ और
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