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१९.८६ ] एकोनविंशोऽधिकारः
२०७ द्विद्विपञ्चाङ्कमानानि देवाः संचारयन्ति वै । पदाब्जयोः पुरः पृष्ठेऽधोभागे व्रजतः प्रभोः ॥७२॥ व्रीह्यादिसर्वशस्यानि विश्वसंतर्पकाण्यपि । सर्वर्तुफलनम्राणि भान्त्यस्य निकटे सुरैः ॥७३॥ निर्मलस्य जिनेन्द्रस्यास्थाने सर्वा दिशोऽमलाः । व्योम्ना समं विराजन्ते पापान्मुक्ता इवामरैः ॥७॥ तीर्थकर्तुः सुयात्रायै चतुर्णिकायनिर्जराः । कुर्वन्त्याह्वाननं नित्यमिन्द्रादेशात्परस्परम् ॥७५॥ स्फुरद्रत्नमयं दीनं सहस्रारं व्रजेत् पुरः । व्रजतोऽस्य हतध्वान्तं धर्मचक्र सुरावृतम् ॥७६।। आदर्शप्रमुखा अष्टौ मङ्गलद्रव्यसंपदः । विश्वमाङ्गल्यकर्तुर्मुदा ढोकयन्ति नाकिनः ॥७७॥ महतोऽतिशयानेतान् देवाश्चक्रुश्चतुर्दश । महातिशायिनो मक्यासाधारणान् जगत्सताम् ॥७॥ इत्येषोऽतिशयैर्दिव्यैश्चतुस्त्रिंशत्प्रमाणकैः । प्रातिहार्याष्टकैः संज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयैः ॥७९॥ अन्यैरन्तातिगैर्दिव्यैर्गुणैश्चालंकृतः प्रभुः । नानादेशपुरग्रामखेटान् वै विहरन् क्रमात् ॥८॥ धर्मोपदेशपीयूषैः प्रीणयन् सजनान् बहून् । मुक्तिमार्गे सतोऽनेकान् स्थापयंस्तत्त्वदर्शनैः ॥८॥ मिथ्याज्ञानकुमार्गान्धतमो निघ्नन् वचोंऽशुमिः । रत्नत्रयात्मकं मुक्तर्मागं व्यकं प्रकाशयन् ॥४२॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोदीक्षामहामणीन् । समीहितान् ददन्नित्यं भव्येभ्यः कल्पशाखिवत् ॥८३॥ संधैर्दवैर्वृतो राजगृहाबाह्यस्थितस्य च । विपुलाचलतुङ्गस्योपरि धर्माधिपोऽगमत् ॥८४॥ तदागमं परिज्ञाय वनपालमुखाद् द्रुतम् । श्रेणिको भूपतिर्भक्त्या पुत्रस्त्रीमव्यबन्धुभिः ॥८॥ सहागत्य मुदा भक्त्या त्रिः परीत्य जगद्गुरुम् । ननाम शिरसा शुद्धय भक्तिभारवशीकृतः ॥८६॥
दिव्य केसर और पत्रवाले सुवर्ण और रत्नमयी महा दीप्तिमान् कमलोंको बिछाते हुए चलते' हैं॥७१-७२॥ भगवानके निकटवर्ती क्षेत्रोंमें संसारको तृप्त करनेवाले ब्रीहि आदि सर्व प्रकारके धान्य और सर्व ऋतुओंके फलोंसे नम्र वृक्ष देवोंके द्वारा शोभाको प्राप्त होते हैं ॥७३॥ कर्ममलसे रहित जिनेन्द्र के सभास्थानमें आकाशके साथ सर्व दिशाएँ देवोंके द्वारा निर्मल होती हुई शोभित होती हैं, जो पापसे मुक्त हुई के समान प्रतीत होती हैं ।।७४॥ तीर्थंकर प्रभुकी विहारयात्रामें साथ चलनेके लिए चतुर्णिकायके देव इन्द्रके आदेशसे परस्पर बुलाते हैं ।।७५|| तीर्थंकर प्रभुके चलते समय चमकते हुए रत्नोंसे निर्मित, दीप्तियुक्त, एक हजार आरेवाला, अन्धकारका नाशक और देवोंसे वेष्टित धर्मचक्र आगे-आगे चलता है ॥७६|| विश्वके मंगल करनेवाले भगवान के विहारकालमें देव लोग दर्पण आदि आठ मंगल द्रव्यरूप सम्पदाको हर्षके साथ लेकर आगे-आगे चलते हैं ।।७७।। इन महान् चौदह अतिशयोंको, जो कि जगत्के अन्य सामान्य लोगोंके लिए असाधारण हैं, महान् अतिशयशाली देव भक्तिसे सम्पन्न करते हैं ॥७८।। इस प्रकार इन चौंतीस दिव्य अतिशयोंसे, आठ प्रातिहार्योंसे, सद्ज्ञानादि अनन्तचतुष्टयसे एवं अन्य अनन्त दिव्य गुणोंसे अलंकृत वीरप्रभुने अनेक देश-पुर-ग्राम-खेटोंमें क्रमसे विहार करते हए, धर्मोपदेशरूपी अमृतके द्वारा सज्जनोंको तृप्त करते, बहुतोंको मुक्तिमार्गमें स्थापित करते, अनेकोंका तत्व-दर्शनरूप वचनकिरणोंसे मिथ्याज्ञानरूप कुमार्गके गाढ़ अन्धकारको हरते, मुक्तिका मार्ग स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करते, भव्य जीवोंके लिए कल्पवृक्षके समान सम्यक्त्व ज्ञान-चारित्र-तप और दीक्षारूपी मनोवांछित महामणियोंको नित्य देते हुए चतुर्विध संघ और देवोंसे आवृत और धर्मके स्वामी ऐसे श्री वीरजिनेन्द्र राजगृहके बाहर स्थित विपुलाचलके उन्नत शिखरके ऊपर आये ॥७९-८४॥
वीर प्रभुका वनपालके मुखसे आगमन सुनकर राजा श्रेणिकने भक्तिपूर्वक पुत्र स्त्रीबन्धु अनेक भव्यजनोंके साथ आकर, हर्षित हो जगद्-गुरुको भक्तिसे तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया। तत्पश्चात् आत्म-शुद्धिके लिए भक्तिभारके वशंगत होकर आठ भेदरूप महाद्रव्योंसे जिनेन्द्रदेवोंकी पूजा कर और पुनः नमस्कार कर अति भक्तिसे उनकी स्तुति करनेके लिए उद्यत हुआ ॥८५-८७॥ श्रेणिकने कहा-हे नाथ, आज हम धन्य हैं, आज हमारा यह
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