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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १८.१४७
मिथ्यात्वारातिसंतानं हन्तुं मोहादिशत्रुभिः । साधं विप्राग्रणीर्मुक्त्यै दीक्षामादातुमुद्ययौ ॥ १४७ ॥ ततस्त्यक्त्वान्तरे सङ्गान् दश बाह्ये चतुर्दश । त्रिशुद्धया परया भक्त्यार्हतीं मुद्रां जगन्नुताम् ॥ १४८ ॥ तृभ्यां सह जग्राह तत्क्षणं च द्विजोत्तमः । शतपञ्चप्रमैइछात्रः प्रवुद्धस्तत्त्वमञ्जसा ॥१४२॥ अन्ये च बहवो भव्या जिनवाक्किरणोत्करैः । मोहसङ्गतमो हत्या जगृहुर्मुनिसंयमम् ॥ १५० ॥ काश्चिन्नृपात्मजा अन्या बह्वयश्च सुनियो मुदा । प्रबुद्धास्तदूगरा सिद्धये बभूवुरार्थिकास्तदा ।। १५१|| केचिच्छ्री जिनवाक्येन सकलानि व्रतानि वै । आददुः श्रावकाणां च नरा नार्योऽपराः शुभाः ॥ १५२ ॥ केचित्सत्पशवः सिंहसर्पाद्या: क्रूरतां निजाम्। प्रहत्य तद्वचो लब्ध्वा स्वीचक्रुः श्रावकव्रतान् ॥१५३॥ केचिच्चतुर्णिकायस्था देवाः काश्चिच्च देवताः । मानवाः पशवो हत्वा मिथ्या हालाहलं विषम् ॥ १५४ ॥ तद्वाक्यामृतपानेन कालाप्याशु शिवाप्तये । अनर्घ्य दृष्टिहारं स्वहृदये निर्मलं व्यधुः ॥ १५५ ॥ व्रताद्याचरणेऽशक्ताः केचित्स्वश्रेयसे जनाः । दानपूजाप्रतिष्ठादीनुद्ययुः कर्तुमञ्जसा ।। १५६ ॥ केचित्तपोव्रतादीनि सर्वशक्त्या प्रयत्नतः । आदाय येष्वशक्ताश्च तेषु दुष्करकर्मसु ॥ १५७ ॥ आतापनादियोगेषु चक्रुः कर्मारिहानये । सर्वेषु भावनां भक्त्या त्रिशुद्ध्या भवनाशिनीम् ॥ १५८ ॥ तदैवास्य गणेशस्य सौधर्मेन्द्रोऽतिभक्तितः । दिव्यार्श्वनैः प्रपूज्यैष पादाब्जौ त्रिजगन्नुतौ ॥१५९॥ नत्वा कृत्वा स्तुतिं दिव्यैर्गुणैर्मध्ये जगत्सताम् । इन्द्रभूतिरयं स्वामीत्युक्त्वा नामान्तरं व्यधात् ॥ १६० ॥ तत्क्षणं श्रीगणेशस्य सप्तैवास्य महर्षयः । प्रादुर्बभूवुरस्यन्तपरिणाम सुशुद्धितः ॥ १६१॥ भो मनःशुद्धिरेवात्र सर्वाभीष्टप्रदा सताम् । ययाप्यन्ते क्षणार्धेन केवलज्ञानसंपदः ॥ १६२ ॥
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करनेसे अति उत्कृष्ट परम आनन्दको प्राप्त हुआ वह ब्राह्मणोंका नेता गौतम वैराग्यपूर्वक मोहादि शत्रुओंके साथ मिथ्यात्वरूपी वैरीकी सन्तानको मारने और मुक्ति पानेके लिए दीक्षा लेनेको उद्यत हुआ ।।१४६-१४७।। तत्पश्चात् निश्चयसे तत्त्वके प्रबोधको प्राप्त उस गौतमने अपने दोनों भाइयोंके तथा पाँच सौ छात्रोंके साथ चौदह अन्तरंग और दश बाह्य परिग्रहको छोड़कर त्रियोग शुद्धिपूर्वक परम भक्तिसे जगत्-पूज्य जिनमुद्राको तत्काल ग्रहण कर लिया ॥१४८-१५०।। उसी समय भगवान्की वाणीसे प्रबोधको प्राप्त हुई कितनी ही राजकुमारियाँ और अन्य बहुत-सी उत्तम स्त्रियाँ आत्मसिद्धिके लिए आर्यिका बन गयीं ॥ १५१ ॥ उसी समय श्री जिनेन्द्र के वचनोंसे प्रबुद्ध हुए कितने ही उत्तम मनुष्योंने और कितनी ही उत्तम स्त्रियोंने श्रावकोंके सर्व व्रतोंको ग्रहण किया || १५२ ।। उसी समय कितने ही सिंह, सर्प आदि उत्तम पशुओंने अपनी क्रूरताको छोड़कर और भगवान् के वचनोंका लाभ पाकर श्रावकके व्रतोंको स्वीकार किया || १५३|| तभी चतुर्णिकायके कितने ही देवोंने और कितनी ही देवियोंने तथा अनेक मनुष्यों और पशुओंने भगवान् के वचनामृत पानसे मिथ्यात्वरूपी हालाहल विषको दूरकर काललब्धिसे शिव प्राप्ति के लिए शीघ्र ही अनमोल सम्यग्दर्शनरूपी निर्मल हारको अपने हृदयों में धारण किया ।। १५४ - १५५।। व्रतादिके पालन करनेमें असमर्थ कितने ही लोग दान-पूजा-प्रतिष्ठा आदि करने के लिए शीघ्र उद्यत हुए || १५६ ।। कितने ही लोगोंने अपनी सर्व शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक व्रत नियमादि ग्रहण कर उन कठिन आतापनादि योगों में अशक्त होनेसे कर्मशत्रुके विनाशके लिए उन सर्व उत्तम कार्यों में त्रियोगशुद्धिपूर्वक भक्ति से संसारको नाश करनेवाली भावना की ।। १५७-१५८।। उसी समय सौधर्मेन्द्रने द्वादश गणोंके स्वामीपदको प्राप्त हुए गौतम गणधर के अतिभक्ति से दिव्य पूजन- द्रव्योंके द्वारा त्रिलोक - नमस्कृत चरणकमलोंको पूजकर, नमस्कार कर और दिव्य गुणोंके द्वारा स्तुति करके सब सत्पुरुषों के मध्य में 'ये इन्द्रभूति स्वामी हैं' ऐसा कहकर उनका इन्द्रभूति यह दूसरा नाम रखा || १५९-१६०।
जिन-दीक्षा ग्रहण करनेपर श्री गौतम गणधरको परिणामों की अत्यन्त विशुद्धिसे तत्काल सातों ही महाऋद्धियाँ प्रकट हो गयीं ॥। १६१ ॥ हे भव्यजनो, सन्तोंके मनकी शुद्धि ही इस
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