________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८.१४६ ] अष्टादशोऽधिकारः
१९९ अहो मिथ्यात्वमागोऽयं विश्वपापाकरोऽशुभः । चिरं वृथा मया निन्द्यः सेवितो मूढचेतसा ॥३३॥ स्रग्भ्रान्त्यात्र यथा कश्चित्कृष्णाहिं शर्मणेऽग्रहीत् । तथाहं धर्मबुद्धयेदं मिथ्यापापं महद्दधे ॥१३॥ धूर्तप्रजल्पितेनानेन मिथ्यावर्त्मना शठाः । नीयन्ते नरकं घोरं संख्यातीतास्तदाश्रिताः ॥१३५॥ उन्मत्ता विकला यद्गूथवीथ्यां पतन्ति भोः । तद्वन्मिथ्यादृशो दृष्टिवैकल्यादुत्पथेऽशुभे ॥१३६॥ चरतां भो यथान्धानां कूपादौ पतनं भवेत् । तथा मिथ्याध्वलग्नानां नरकाद्यन्धकूपके ॥१३॥ इमं मिथ्यात्वदुर्मागं मन्येऽहं विषमं तराम् । खलान् श्वभ्रपथं नेतुं सार्थवाहं शठादृतम् ॥१३॥ सम्यश्चित्तधर्मादिनृपतीनां च शात्रवम् । प्राणिनः खादितुं सर्पमाकरं परमेनसाम् ॥१३९॥ गोशृङ्गाच्च यथा दुग्धं बह्वम्भोमथनाद् घृतम् । यशो दुर्व्यसनाख्यातिः कृपणत्वात्कुकर्मणा ॥१४०॥ धनं वा लभ्यते जातु नैव मिथ्यात्वतस्तथा । न शुभ न सुखं नात्र सद्गतिश्च जडात्मभिः ॥१४१॥ मिथ्यात्वाचरणेनाहो केवलं गम्यते स्फुटम् । अगम्यं नरकं घोरं मिथ्यादभिर्वृषातिगैः ॥१४॥ इति मत्वा बुधैरादौ धर्मस्वमुक्तिसिद्धये । मिथ्यात्वारिः प्रहन्तव्यो दृग्विशुद्धयसिना द्रुतम् ॥१४॥ अद्याहमेव धन्योऽहो सफलं जन्म मेऽखिलम् । यतो मयातिपुण्येन प्राप्तो देवो जगद्गुरुः ।।१४४॥ अनय॑स्तत्प्रणीतोऽयं मार्गो धर्मः सुखाकरः । नाशितं दृष्टिमोहान्धतमश्चास्य वचोंऽशुभिः ॥१४५॥
इत्यादि चिन्तनात्प्राप्य परमानन्दमुल्बणम् । धर्मे धर्मफलादौ च स वैराग्यपुरस्सरम् ॥१४६॥ पूर्वक संसार, शरीर, लक्ष्मी और इन्द्रिय-भोगादिमें संवेगको प्राप्त होकर अपने हृदयमें इस प्रकार विचार करने लगे ॥१३१-१३२।। अहो, यह मिथ्यात्वमार्ग समस्त पापोंका आकर है, अशुभ है और निन्दनीय है। मुझ मूढ़-हृदयने चिरकालसे इसे वृथा सेवन किया है ॥१३३॥ इस लोकमें जैसे कोई अज्ञानी मालाके भ्रमसे सुख-प्राप्तिके लिए काले साँपको ग्रहण करे, उसीके समान मैंने धर्मबुद्धिसे यह महान् मिथ्यात्व पाप हृदयमें धारण किया ॥१३४॥ धूर्त जनोंसे प्ररूपित इस मिथ्यात्वमार्गके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए असंख्यात मूर्ख प्राणी धोर नरकमें ले जाये जा रहे हैं ॥१३५।। जैसे मदिरापानसे उन्मत्त विकल पुरुष विष्टासे भरी गलीमें पड़ते हैं, अरे, उसी प्रकार मिथ्यात्वसे विमोहित मिथ्यादृष्टि जीव अशुभ कुमार्गमें पड़ते हैं ।।१३६।। अहो, जैसे चलते हुए अन्धोंका कूप आदि निम्न स्थानमें पतन होता है उसी प्रकार मिथ्यामार्गगामियोंका नरकादि अन्धकूपमें पतन होता है ॥१३७।। (भगवान्के उपदेशसे प्रबोध पाकर अब ) मैं मानता हूँ कि यह मिथ्यात्वरूप कुमार्ग अत्यन्त विषम है और दुर्जनोंको नरकके मार्गपर ले जानेके लिए सार्थवाह के सदृश है। यह शठ पुरुषोंसे समादत है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और दश धर्मादि राजाओंका शत्रु है, प्राणिय को खानेके लिए अजगर साँप है और महापापोंका आकर है ।।१३८-१३९॥ जिस प्रकार गायके सींगसे दूध, बहुत भी जलके मन्थनसे घी, दुर्व्यसन-सेवनसे यश, कृपणतासे ख्याति, और खोटे व्यापारादि कार्योंसे धन नहीं प्राप्त होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व-सेवनसे कभी भी जड़ात्मा पुरुषोंको इस लोकमें न शुभ वस्तु मिल सकती है, न सुख मिल सकता है और न सद्गति प्राप्त हो सकती है ॥१४०-१४१॥ अहो, मिथ्यात्वके आचरणसे तो धर्म-विमुख मिथ्यादृष्टि जीव निश्चयसे केवल अगम्य घोर नरकको ही आते हैं ॥१४२।। ऐसा समझकर बुद्धिमानोंको धर्मकी प्राप्ति और स्वर्ग-मोक्षकी सिद्धिके लिए सबसे पहले मिथ्यात्वरूपी वैरीको दृग्विशुद्धिरूप तलवारके द्वारा शीघ्र मार देना चाहिए ॥१४३।। ।
- अहो, आज मैं धन्य हूँ, मेरा यह सारा जीवन सफल हो गया है, क्योंकि अति पुण्यसे आज मैंने जगद्-गुरु श्री जिनदेवको पाया है ॥१४४।। इनके द्वारा प्रणीत (उपदिष्ट) यह मार्ग और यह धर्म अनमोल है, और सुखका भण्डार है । आज इनके वचनरूप किरणोंसे दर्शनमोहरूप महान्धकार नष्ट हो गया है ॥१४५।। इत्यादि रूपसे धर्म और धर्मका फल चिन्तन
For Private And Personal Use Only