Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 230
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ श्री वीरवर्धमानचरिते [ १८.११९ अथ दुःषमकालाख्यः पञ्चमो दुःखपूरितः । वत्सराणां सहस्रैकविंशतिप्रम एव हि ॥ ११९ ॥ विंशत्यग्रशतायुष्का वर्षाणां मन्दधीयुताः । नराः सप्तकरोत्सेधा रूक्षदेहाः सुखातिगाः ॥१२०॥ दुःखिनोऽसकृदाहाराः प्रत्यहं कुटिलाशयाः । तस्यादौ स्युः क्रमाद्धीनाः स्वाङ्गायुधवलादिभिः ॥ १२१ ॥ दुःषमादुःषमाख्योऽथ षष्ठकालोऽतिदुःखदः । वषैः पञ्चमकालस्य समो धर्मादिदूरगः ॥ १२२ ॥ अस्यादौ द्विकरोत्सेधा धूमवर्णाः कुरूपिणः । नग्नाश्च स्वेच्छयाहारा विंशत्यब्दायुषो नराः || १२३ ॥ एकहस्तोच्छ्रितास्ते स्युः कालान्तेऽत्र पशूपमाः । षोडशाब्दाः परायुष्का निन्द्या दुर्गतिगामिनः || १२४॥ यथावसर्पिणीकालः क्रमेण हानिसंयुतः । तथात्रोत्सर्पिणीकालो वृद्धियुक्तो जिनैर्मतः ॥१२५॥ अधो वेत्रासनाकारो मध्ये स्याज्झलरीसमः । मृदङ्गसदृशश्चान्ते लोकः षद्रव्य पूरितः ॥ १२६ ॥ इत्याद्यनेकसंस्थानं श्वभ्रस्वर्गादिगोचरम् । त्रैलोक्यस्यायवादेन न्यवेदयजिनाधिपः ॥ १२७ ॥ किमत्र बहुनोक्तेन काल त्रितयगोचराः । ये केचित्रिजगन्मध्ये पदार्थाश्च शुभाशुभाः ॥ १२८ ॥ भूताश्च भाविनो वर्तमानाः कैवल्यदृष्टिगाः । सम्स्यलोकेन सार्धं तान् पदार्थान् सकलान् जिनः ॥ १२९ ॥ द्वादशाङ्गगतार्थेनादिशच्छ्छ्रीगौतमं प्रति । हिताय विश्वभव्यानां धर्मंतीर्थप्रवृत्तये ॥ १३०॥ इति श्रीजिनवक्त्रेन्दुद्भवं ज्ञानामृतं महत् । पीत्वा श्री गौतमो हत्वा मिथ्याहालाहलं द्रुतम् ॥१३१॥ काललब्ध्या मुदासाद्य संवेगं दृष्टिपूर्वकम् । विश्वाङ्गश्रीखभोगादौ स्वहृदीत्थमतर्कयत् ॥१३२॥ कहा ॥११६-११८॥ अथानन्तर दुःखोंसे भरा हुआ दुःषम नामका पंचम काल होगा । उसका काल-प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है ॥ ११९ ॥ उसके प्रारम्भ में मनुष्य एक सौ बीस वर्ष की आयुके धारक और सात हाथके ऊँचे होंगे । इस कालके मनुष्य मन्द बुद्धिसे युक्त रूक्ष देहवाले और सुखोंसे रहित होंगे || १२०|| वे दुःखी लोग प्रतिदिन अनेक बार आहार करेंगे और कुटिल चित्त होंगे । पुनः उनका शरीर, आयु, बुद्धि और बल आदिक क्रमसे हीन होता जायेगा ।।१२१।। तत्पश्चात् दुःषमदुःषमा नामका अति दुःखदायी छठा काल आयेगा । उसका कालप्रमाण पंचम कालके समान इक्कीस हजार वर्ष है । उस समय धर्मादि नहीं रहेगा || १२२ ॥ इस कालके आदिमें मनुष्योंके देह दो हाथ ऊँचे और धूम्रवर्णके होंगे। वे मनुष्य कुरूपी, नग्न, स्वेच्छाहारी और बीस वर्षकी आयुके धारक होंगे || १२३ || इस कालके अन्त में मनुष्य एक हाथ ऊँचे, पशुके समान आहार-विहार करनेवाले, उत्कृष्ट, सोलह वर्षकी आयुके धारक, निन्दनीय और दुर्गतिगामी होंगे || १२४ || जिस प्रकारसे यह अवसर्पिणी काल क्रमसे आयु, बल, शरीर आदिकी हानिसे संयुक्त है, उसी प्रकारसे उत्सर्पिणीकाल उन सबकी वृद्धि से संयुक्त जिनराजोंने कहा है || १२५ || तदनन्तर वीरप्रभुने लोकका वर्णन करते हुए कहा - इस लोकका अधोभाग वेत्रासनके आकारवाला है, मध्यमें झल्लरीके समान है और ऊपर मृदंगके सदृश है | यह सदा जीवाद छह द्रव्योंसे भरपूर है ।। १२६ । । ( इस लोकके अधोभागमें नरक हैं, ऊर्ध्व भाग में स्वर्गं हैं और मध्यभागमें असंख्यात द्वीप - समुद्र हैं । ) इत्यादि प्रकार से सत्यार्थवादी जिनराज श्री वर्धमान स्वामीने अनेक संस्थानवाले और स्वर्ग-नरकादि विषयवाले तीन लोकका स्वरूप कहा || १२७|| इस विषय में अधिक कहने से क्या, इस तीन लोक के मध्य में त्रिकाल -विषयक और केवलज्ञानगोचर जितने कुछ भी शुभ-अशुभ पदार्थ भूतकालमें हुए हैं, वर्तमान में विद्य मान हैं और भविष्य में होंगे, उन सर्व पदार्थोंको अलोकाकाशके साथ वीर जिनेन्द्र ने द्वादशांगगत अर्थके साथ श्री गौतमके प्रति सर्व भव्य जीवोंके हितार्थ और धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए उपदेश दिया ।। १२८-१३०॥ इस प्रकार श्री वीरजिनके मुख चन्द्रसे उत्पन्न हुए वचनरूप अमृतको पीकर और अपने मिध्यात्वरूपी हलाहल विषको शीघ्र नाश कर श्री गौतम काललब्धिसे हर्षके साथ सम्यग्दर्शन For Private And Personal Use Only

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