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अष्टादशोऽधिकारः
श्रीवीरं मुक्तिभर्तारं वन्देऽज्ञानतमोऽपहम् । विश्वदीपं सभान्तःस्थं धर्मोपदेशनोद्यतम् ॥१॥ अथ गौतम घीमंस्त्वं शृणु सार्धं गणैर्बुवे । मुक्तेर्मार्गं विदो येन शिवं यान्ति न संशयः ॥ २ ॥ शङ्कादिदोषदूरं यच्छ्रद्धानं तद्गुणान्वितम् । तत्त्वार्थानां शिवाङ्गं तद्द्व्यवहाराख्यदर्शनम् ॥३॥ नायो जातु देवोऽन्यो निर्ग्रन्थेभ्यो गुरुर्न च । अहिंसादिवतेभ्योऽवापरो धर्मो न तत्त्वतः ॥ ४ ॥ जैनशासनतो नान्यच्छासनं प्रवरं क्वचित् । अङ्गपूर्वेभ्य एवान्यश्च ज्ञानं विश्वदीपकम् ॥ ५ ॥ रत्नत्रयात्परो नान्यो मुक्तिमार्गों हि विद्यते । भव्यानां परमेष्टिभ्यो हितकर्तापरो न च ॥ ६ ॥ पात्रदानात्परं दानं न च श्रेयोनिबन्धनम् । सहगामि सुधर्मान्न पाथेयं परजन्मनि ॥७॥ नामध्यानात्परं ध्यानं केवलज्ञानकारणम् । धर्मवद्भिः समः स्नेहो न महान् धर्मशर्मदः ॥ ८ ॥ द्वादशभ्यस्तपोभ्योऽन्यत्तपो नाघक्षयंकरम् । नमस्कार महामन्त्रान्मन्त्रो न भुक्तिमुक्तिदः || कर्माक्षेभ्योऽपरो बैरी नेहामुत्रातिदुःखदः । इत्यादि सकलं विद्धि त्वं दृष्टेर्मूलकारणम् ॥१०॥ ज्ञानचारित्रयोर्बीजं मुक्तेः सोपानमग्रिमम् । अधिष्ठानं व्रतादीनां जानीहि दर्शनं परम् ॥११॥ दर्शनेन विना पुंसां ज्ञानमज्ञानमेव मोः । दुश्चारित्रं च चारित्रं निष्फलं स्यात्तपोऽखिलम् ॥१२॥ इति ज्ञात्वा दृढीकार्यं सम्यक्त्वं चन्द्रनिर्मलम् । निःशङ्कादिगुणैर्हत्वा शङ्कामोढ्यादितन्मकान् ॥ १३ ॥
मुक्ति भर्ता, अज्ञानरूप अन्धकारके हर्ता, विश्व के प्रकाशक, समवशरण के मध्य में विराजमान और धर्मोपदेश देनेमें उद्यत ऐसे श्री वीर भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ || १ | इसके पश्चात् भगवान् ने कहा- हे धीमन् गौतम, तुम सर्व गणोंके साथ सुनो। मैं मोक्षका मार्ग कहता हूँ, जिससे कि ज्ञानी जन मोक्षको जाते हैं इसमें कोई संशय नहीं है ॥२॥ तत्त्वार्थका जो शंकादि दोषोंसे रहित और निःशंकादि गुणोंसे युक्त श्रद्धान है, मोक्षका अंगस्वरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन है || ३ || इस संसार में अर्हन्तोंसे अतिरिक्त कोई श्रेष्ठ देव नहीं है, निर्ग्रन्थ गुरुओंसे बढ़कर कोई उत्तम गुरु नहीं है, अहिंसादि पंच महाव्रतों से बढ़कर कोई अन्य धर्म नहीं है || ४ || जैनशासन से भिन्न कोई उत्कृष्ट शासन नहीं है, द्वादश अंगों और चतुर्दश पूर्वोसे बढ़कर अन्य कोई विश्वप्रकाशक ज्ञान नहीं है ||५|| रत्नत्रय से अन्य कोई दूसरा मुक्तिका मार्ग नहीं है, पंच परमेष्ठियोंसे अन्य कोई दूसरा भव्य जीवोंका हितकर्ता नहीं है || ६ || पात्रदान से परे कोई दूसरा कल्याणकारक दान नहीं है, सुधर्मसे अतिरिक्त अन्य कोई पर जन्म में साथ जानेवाला पाथेय ( मार्ग-भोजन, कलेवा ) नहीं है ||७|| केवलज्ञानके कारणभूत आत्मध्यानसे बढ़कर कोई दूसरा ध्यान नहीं है, धर्मात्माओंके साथ स्नेह के समान धर्म और सुखको देनेवाला अन्य कोई स्नेह नहीं है ||८|| द्वादश तपोंसे अन्य, पापों का क्षय करनेवाला अन्य कोई तप नहीं है, पंचनमस्कार महामन्त्र से भिन्न स्वर्ग और मोक्षको देनेवाला अन्य कोई मित्र नहीं है ||९|| कर्म और इन्द्रियोंके सिवाय इस लोक और परलोक में अति दुःखों को देनेवाला और कोई शत्रु नहीं है । इत्यादि सकल कार्योंको हे गौतम, तुम सम्यग्दर्शनका मूलकारण जानो ॥ १० ॥ यह सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रका बीज है, मोक्षका प्रथम सोपान ( सीढ़ी ) है और व्रतादिका परम अधिष्ठान है, ऐसा तू जान ॥ ११॥ हे गौतम, सम्यग्दर्शन के विना जीवोंका ज्ञान तो अज्ञान है, चारित्र कुचारित्र है और समस्त तप निष्फल है ||१२|| ऐसा जानकर निःशंकादि गुणोंके द्वारा शंका और मूढ़तादि मलोंको दूर कर सम्यक्त्वको चन्द्रमाके समान निर्मल और दृढ़ करना चाहिए || १३ ||
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