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१७.२०९]
सप्तदशोऽधिकारः
१८९
वीरोऽत्रैष नुतः स्तुतः किल मया वीरं श्रयाम्यन्वहं
वीरेणानुचराम्यमा शिवपथं वीराय कुवै नुतिं । वीरानास्त्यपरो ममातिहितकृद्वीरस्य पादौ श्रये
वीरे स्वस्थितिमातनोमि परमां मां वीर तेऽन्त नय ॥२०॥
इति भट्टारकश्रीसकलकोतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते श्रीगौतम
स्वामिकृतप्रश्नमालोत्तरवर्णनो नाम सप्तदशोऽधिकारः ।।१७।।
वीरनाथकी मैं यहाँ पर परम भक्तिसे स्तुति करता हूँ ॥२०८॥ जो वीरप्रभु मेरे द्वारा यहाँ पर नमस्कृत स्तुतिके विषयभूत हैं, मैं उन वीरनाथका आश्रय लेता हूँ। वीर प्रभुके साथ मैं भी शिवमार्गका अनुसरण करता हूँ, तथा वीरप्रभुके लिए नमस्कार करता हूँ। वीरसे अतिरिक्त अन्य कोई मेरा हित करनेवाला नहीं है, इसलिए मैं वीर जिनेन्द्र के चरणोंका आश्रय लेता हूँ। मैं वीर-भगवानमें अपने चित्तकी परम स्थितिको करता हूँ। हे वीरभगवान् , आप मुझे अपने समीप ले जायें ॥२०९।।
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीर्ति-विरचित श्री वीरवर्धमानचरितमें श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गये प्रश्नमालाके उत्तर वर्णन करनेवाला सत्रहवाँ
अधिकार समाप्त हुआ ॥१७॥
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