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१८८ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१७.१९६तीर्थेशगुरुसङ्घानामुच्चैः पदमयात्मनाम् । प्रत्यहं च नुतिं भक्तिं तन्वन्ति गुणकीर्तनम् ॥१९॥ स्वस्य निन्दां च येऽत्रार्या गुणिदोषोपगृहनम् । तेऽमुन्न त्रिजगद्वन्द्यं गोत्रं श्रयन्ति गोत्रतः ॥१९७॥ स्वगुणाख्यापनं दोषोभावनं गुणिनां सदा । कुर्वन्ति नीचदेवांश्च नीचधर्मगुरून् जडाः ॥१९८।। ये सेवन्ते च धर्माय ते नीचपदमागिनः । नीचगोत्रं च संप्राप्नुवन्त्यत्र नीचकर्मणा ॥१९९॥ मिथ्यामार्गानुरागेणाकान्ते कुत्सिते पथि । स्थिता ये कुगुरून् मिथ्यादेवधर्मान् भजन्ति च ॥२०॥ दुर्धियः श्रेयसे तेषां पूर्वसंस्कारयोगतः । मिथ्यामार्गेऽनुरागोऽमुत्र जायेताशुभाकरः ॥२०१॥ जिनशास्त्रगुरून् धर्म परीक्ष्य ज्ञानचक्षुषा । ये तात्पर्येण सेवन्ते भक्त्या तद्गुणरञ्जिताः ॥२०२॥ अनन्यशरणानन्यान् स्वप्नेऽपि कुपथस्थितान् । जिनधर्मेऽनुरक्तास्ते स्युरमुत्र शिवाध्वगाः ॥२०३॥ व्युत्सर्ग दुष्कर योगं तपोमौनव्र तादिकान् । स्वशक्त्या दधते ये च बुधाः स्वर्मुक्तिकाक्षिणः ॥२०४॥ नाच्छादयन्ति सद्वीय तपोधर्मादिकर्मसु । ते लभन्ते दृढं कायं तपोभारक्षमं शुभम् ॥२०५।। शक्ता येऽत्र निजं वीर्य व्यक्तं कुर्वन्ति जातु न । कायशर्मरता धर्मतपोव्युत्सर्गसिद्धये ॥२६॥ तन्वन्ति पापकर्माणि गृहव्यापारकोटिमिः। परत्राघागवेत्तेषां वपुर्निन्यं तपोऽक्षमम् ॥२०७॥
इति विशदगिरासौ प्रश्नराजेजिनेन्द्रः सुरशिवगतिहेतोरर्थरूपेण युक्त्या। प्रति सगणगणेशं प्रादिशप्रोत्तरं यस्तमिह परमभक्त्या वीरनाथं स्तुवेऽहम् ॥२०॥
होते हैं ॥१९४-१९५।। जो आर्यजन तीर्थकर, सुगुरु, जिनसंघ और उच्चपदमयी पंचपरमेष्ठियोंकी प्रतिदिन पूजा-भक्ति करते हैं, उनके गुणोंका कीर्तन करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, अपने दोषोंकी निन्दा करते है और दूसरे गुणी जनोंके दोषोंका उपगृहन करते हैं, वे पुरुष उच्च गोत्र कर्मके परिपाकसे परभवमें त्रिजगद्-वन्द्य गोत्र कर्मका आश्रय प्राप्त करते हैं अर्थात् तीर्थंकर होते हैं ।।१९६-१९७।। जो जड़ पुरुष अपने-अपने गुणोंको प्रकट करते हैं और गुणी जनोंके दोषोंको सदा प्रकट करते रहते हैं, तथा नीच देवोंकी, नीच धर्मकी और नीच गुरुओंकी धर्मके लिए सेवा करते हैं, वे लोग इस संसारमें नीच गोत्र कर्मके उदयसे नीचगोत्र पाते हैं और नीच पदके भागी होते हैं ॥१९८-१९९।। जो दुर्बुद्धि पुरुष इस लोकमें मिथ्यामागके अनुरागसे एकान्ती मिथ्यामार्गमें स्थित हैं और कुगुरु कुदेव कुधर्मकी आत्मकल्याणके लिए सेवा करते हैं उनका पूर्व भवके संस्कारके योगसे परभवमें अशुभका भण्डार-ऐसा अनुराग मिथ्यामार्गमें होता है ॥२००-२०१॥
जो अपने ज्ञाननेत्रसे यथार्थ जिनदेव, शास्त्र-गुरु और धर्मकी परीक्षा करके उनके गुणानुरागी होकर उन गुणोंकी प्राप्ति के अभिप्राय से भक्ति पूर्वक उनकी सेवा करते हैं, उन्हें ही अपने अनन्य ( एक मात्र) शरण मानते हैं और कुमार्गमें स्थित अन्य . कुदेवादिकी स्वप्नमें भी सेवा नहीं करते हैं, वे परलोकमें जिनधर्मानुरक्त और शिवमार्गके पथिक होते हैं ।।२०२-२०३।। जो स्वर्ग-मुक्तिके इच्छुक ज्ञानी पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार अति दुष्कर कायोत्सर्गयोगको और मौनव्रत आदिको धारण करते हैं, तपश्चरण और धर्म सेवनादि कार्यों में अपने विद्यमान बल-वीर्यको नहीं छिपाते हैं, वे परभवमें तपके भारको सहन करने में समर्थ ऐसे शुभ वज्रवृषभनाराचसंहननवाले दृढ़ शरीरको पाते हैं ।।२०४-२०५।। जो समर्थ होकरके भी धर्म तप व्युत्सर्ग आदिकी सिद्धिके लिए कदाचित् भी अपने बलवीर्यको व्यक्त नहीं करते हैं और शरीरके सुखमें मग्न रहते हैं, तथा घरके व्यापारसम्बन्धी करोड़ों कार्यों के द्वारा पाप कर्मोको करते रहते हैं, उन जीवोंको उस पापसे परभवमें तप करने में असमर्थ और निन्दनीय शरीर प्राप्त होता है ।।२०६-२०७॥
___इस प्रकार जिस वीर जिनेन्द्रने स्वर्ग और मोक्षगतिकी कारणभूत गौतमकी प्रश्नावली का विशद वाणी द्वारा अर्थरूपसे युक्तिपूर्वक समस्त गण और गणधरके लिए उत्तर दिया, उस
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