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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१७.१६७जातु दोषाग्न जानन्ति मिथ्यामार्गकुलिङ्गिनाम् । भवेयुर्निर्गुणास्तेऽत्र निर्गन्धकुसुमोपमाः ॥१६॥ मिथ्यादृशां कुदेवानां कुत्सितानां कुलिङ्गिनाम् । सेवां भक्तिं च कुर्वन्ति ये धर्माय वृषोपमाः ॥१६॥ न च श्रीजिननाथानां धर्मिणां न सुयोगिनाम् । परकिङ्करता पापात्ते लभन्ते पदे पदे ॥१६९॥ त्रिजगत्स्वामिनश्वार्हद्गणेन्द्रागमयोगिनः । रत्नत्रयं तपोधर्ममाराधयन्ति येऽनिशम् ॥१७॥ त्रिशुद्धया नुतिपूजायेस्त्यक्त्वा सर्वान्मतान्तरान् । उत्पद्यन्तेऽत्र पुण्यात्ते स्वामिनो विश्वसंपदाम् ॥१७॥ निर्दया ये व्रतैहींना घ्नन्त्यत्र परबालकान् । तन्वन्ति बहुमिथ्यात्वं संतानादिप्रसिद्धये ॥१७॥ तेषां शठात्मनां मिथ्यात्वाधपाकेन निश्चितम् । स्वल्पायुषो न जीवन्ति पुत्राः पुण्यादिवर्जिताः ॥१७३॥ चण्डिकाक्षेत्रपालादीन् यागगौर्यादिकान् बहून् । दूर्वादीन् पुत्रलाभाय ये भजन्त्यर्चनादिमिः ॥१७४।। न चाहतोऽत्र पुत्रादिसर्वार्थसिद्धिदान् शठाः । बन्ध्यत्वं ते लभन्तेऽहो मिथ्यात्वेन भवे भवे ॥१७५॥ स्वसंतानसमान्मत्वाऽन्यपुत्रान् घ्नन्ति जातु न । मिथ्यात्वं शत्रुवत्त्यक्त्वा येऽहिंसादिव्रतान्विताः॥१७६॥ यजन्ति जिनसिद्धान्तयोगिनः स्वेष्टसिद्धये । दिव्यरूपाः शुभात्तेषां सुताः स्युश्चिरजीविनः ॥३७॥ तपोनियमसद्ध्यानकायोत्सर्गादिकर्मसु । वापरे धर्मकार्यादौ दीक्षादानेऽतिदुष्करे ॥ ५७८।। कातरत्वं प्रकुर्वन्ति हीनसत्त्वा हि येऽङ्गिनः । कातरास्तेऽत्र जायन्ते सर्वकार्येऽक्षमा ह्य धात् ॥१७९॥
स्वधैर्य प्रकटीकृत्य दुष्कराणि तपांसि च । ध्यानाध्ययनयोगादीन् कायोत्सर्ग चरन्ति ये ॥१८०॥ हैं, गुण-हीन कुदेव आदिके गुणोंका व्यर्थ स्मरण करते हैं और मिथ्यामार्ग पर चलनेवाले कुलिंगियोंके दोषोंको कदाचित् भी नहीं जानते हैं, वे पुरुष इस लोकमें निर्गन्ध कुसुमके समान निर्गणी होते हैं ।।१६६-१६७।। जो पुरुष मिथ्यादृष्टि कुदेवोंकी और खोटे आचरण करनेवाले कुलिंगियोंकी धर्म-प्राप्तिके लिए सेवा और भक्ति करते हैं और श्री जिननाथोंकी, धर्मात्मा सुयोगियोंकी सेवा-भक्ति नहीं करते हैं, वे अपने इस उपार्जित पापसे बैलोंके समान पद-पदपर पर-बन्धनमें बद्ध होकर दासपनेको पाते हैं ॥१६८-१६९।। जो लोग तीन जगत्के स्वामी अर्हन्तोंकी, गणधरोंकी, जिनागमकी, योगी जनोंकी, रत्नत्रयधर्मकी और तपकी निरन्तर मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक और सर्व मतान्तरोंको छोड़कर आराधना करते हैं, वे इस लोकमें उस पुण्यसे सर्व सम्पदाओंके स्वामी होते हैं ॥१७०-१७१।। जो निर्दय, व्रत-हीन मनुष्य इस लोकमें दूसरोंके बालकोंका घात करते हैं और सन्तान आदिकी प्राप्तिके लिए अनेक प्रकारका मिथ्यात्व सेवन करते हैं, उन शठ पुरुषोंके मिथ्यात्वपापके परिपाकसे उनके पुत्र अल्प आयुके धारक होते हैं, वे जीते नहीं हैं और जितने दिन जीवित रहते हैं, उतने दिन पुण्य और सौभाग्य आदिसे हीन रहते हैं ।।१७२-१७३॥ जो मूर्ख पुत्र-लाभके लिए चण्डिका गौरी क्षेत्रपाल आदि देवी-देवताओंकी, पूजा-अर्चना आदिसे सेवा करते हैं, अनेक प्रकारके यज्ञ-यागादिकको करते हैं, और दूर्वा-पीपल आदिको पूजते हैं, किन्तु पुत्रादि सर्व अर्थोंकी सिद्धि देनेवाले अर्हन्तोंकी पूजा-उपासना नहीं करते हैं, वे पुरुष मिथ्यात्व कर्मके उदयसे भव-भवमें पुत्र हीन होते हैं, अर्थात् बन्ध्यापने वाली स्त्रियोंको पाते हैं ॥१७४-१७५|| जो पुरुष अन्यके पुत्रोंको अपनी सन्तानके समान मानकर उनका स्वप्नमें भी घात नहीं करते (किन्तु प्रेमसे पालन-पोषण करते हैं) और मिथ्यात्वको शत्रुके समान जान उसे छोड़कर अहिंसादि व्रतोंको धारण करते हैं, तथा जो अपनी इष्ट सिद्धिके लिए जिन देव, जिनसिद्धान्त और जिनानुयायी साधुओंकी पूजा-उपासना करते हैं, उस पुण्यके उदयसे उनके पुत्र चिरकाल तक जीनेवाले और दिव्यरूपके धारक होते है ॥१७६-१७७) जो लोग तप, नियम, सद्-ध्यान और कायोत्सर्ग आदि कार्यो में तथा अन्य धार्मिक कार्यो में, एवं अतिकठिन दीक्षा लेने में कायरता प्रकट करते हैं, वे हीन सत्त्ववाले जीव उस पापसे इस लोकमें कायर और सर्व कार्योंके करनेमें असमर्थ होते हैं ॥१७८-१७९|| जो अपने धैर्यको प्रकट कर अति
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