Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 217
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७.१६६ ] सप्तदशोऽधिकारः समर्था अपि ये पात्रदानं श्रीजिनपूजनम् । धर्मकार्यं च जैनानामुपकारं न कुर्वते ॥१५३॥ वाञ्छन्ति सकला लक्ष्मीर्लोभादर्मवतातिगाः । तेऽघपाकेन दुःखाच्या निर्धनाः स्युर्भवे भवे ॥ १५४ ॥ पशूनां वा मनुष्याणां वियोगं ये वितन्वते । बन्ध्वाद्यैः पररामाश्रीवस्त्वादींश्च हरन्त्यलम् ॥ १५५ ॥ निःशीलास्ते लभन्तेऽत्र वियोगं च पदे पदे । पुत्रबान्धवकान्ताश्रूयादीष्टेभ्यो ह्यशुमोदयात् ॥१५६॥ दूषयन्ति न जीवान् ये वियोगताडनादिभिः । पोषयन्ति सदा जैनांस्तदीहितसुसंपदा ॥ १५७ ॥ सेवन्ते यत्नतो धर्मं व्रतदानार्चनादिभिः । स्पृहयन्ति न शर्मखीतुग्धनादीन् शिवं विना ॥१५८ ॥ संपद्यन्तेऽत्र तेषां च पुण्यभाजां सुपुण्यतः । संयोगाश्च मनोऽमोष्टपुत्रस्त्रीधनकोटिभिः ॥ १५९ ॥ पात्रेभ्यो येऽनिशं दानं धनं मक्त्या च सिद्धये । चैत्यचैत्यालयादीनां ददते धर्मकाङ्क्षिणः ॥ १६० ॥ तेषां सर्वत्र जायेत दातृत्वगुण उत्तमः । पूर्वसंस्कारयोगेन श्रेयसेऽत्र परत्र च ॥ १६१॥ वितरन्ति न दानं ये पात्रेभ्यः कृपणाः क्वचित् । धनं न जिनपूजाये त्रिजगच्छ्रीसुखार्थिनः ॥ १६२॥ ते दुर्गतौ चिरं भ्रान्त्या तीव्रलोभाकुला ह्यधात् । पुनः सर्पादिगत्याप्त्यै जायन्ते कृपणा भुवि ॥ १६३॥ ध्यायन्ति तद्गुणाप्त्यै ये गुणांल्लोकोत्तमान् सदा । अर्हतां च गणेशानां तद्वाचो मुनिधर्मिणाम् ॥१६४॥ गुणग्रहणशीलाश्च सर्वत्रागुणदूरगाः । गणिनस्ते भवन्त्यत्र बुधार्थ्या गुणवृद्धये ॥ १६५॥ दोषान् गृह्णन्ति ये मूढा गुणिनां न गुणान् क्वचित् । निर्गुणानां कुदेवादीनां स्मरन्ति गुणान् वृथा ॥१६६॥ १८५ युक्त होकर सुपात्रोंको दान देते हैं, तप, व्रत, संयमादिका आचरण करते हैं, और लोभसे दूर रहते हैं, उनके पास पुण्यकर्मके उदयसे जगत् में सारभूत लक्ष्मी स्वयं जाती है ।। १५१-१५२ ॥ जो पुरुष समर्थ होकरके भी पात्रदान, श्री जिनपूजन, धर्म- कार्य और जैनोंका उपकार नहीं करते हैं, धर्म और व्रतसे दूर रहते हैं और लोभसे संसारकी सम्पदाओंकी वांछा करते हैं, वे जीव पापके परिपाकसे भव-भवमें निर्धन और दुःख भोगनेवाले होते हैं ।। १५३-१५४॥ जो जीव पशुओंका अथवा मनुष्योंका उनके बन्धु जनोंसे वियोग करते हैं, पर-स्त्री, पर-लक्ष्मी और पर वस्तु आदिका निरन्तर अपहरण करते हैं, तथा व्रत शीलसे रहित हैं, वे जीव यहाँ पद-पद पर पाप कर्म के उदयसे पुत्र, बान्धव, स्त्री और लक्ष्मी आदि इष्ट वस्तुओंसे वियोगको प्राप्त होते हैं ।। १५५-१५६ || जो पुरुष वियोग, ताडुन आदिसे दूसरे जीवोंको दुःख नहीं पहुँचाते हैं, सदा जैनोंका उनकी अभीष्ट सम्पदा से अर्थात् मनोवांछित वस्तु देकर पोषण करते हैं, यत्नपूर्वक व्रत, दान, पूजनादिके द्वारा धर्मका सेवन करते हैं, मोक्ष के विना सांसारिक सुख-स्त्री, पुत्र और धनादिकी इच्छा नहीं करते हैं, उन पुण्यशाली लोगों की सुपुण्यके निमित्तसे मनोभीष्ट पुत्र स्त्री और कोटि-कोटि धनके साथ इस लोक में संयोग प्राप्त होते हैं ।। १५७१५९।। जो धर्मके अभिलाषी जन पात्रोंके लिए सदा दान देते हैं, जिन प्रतिमा और जिनालय आदिके निर्माणके लिए भक्तिके साथ धन देते हैं, उनके पूर्व संस्कारके योगसे सर्वत्र उत्तम दातृत्व गुण प्राप्त होता है, जो उनके इस लोक और परलोकमें कल्याणके लिए कारण होता है ।। १६०-१६१।। जो कृपण पुरुष क्वचित् कदाचित् भी पात्रोंके लिए दान नहीं देते हैं और तीन लोककी लक्ष्मी और सुखके इच्छुक होकर के भी जिनपूजाके लिए धन नहीं देते हैं, वे कृपण अपने इस पापके द्वारा तीव्र लोभसे आकुलित होकर चिरकाल तक दुर्गतियों में परिभ्रमण कर पुनः सर्प आदिकी गति पानेवाले होते हैं ।। १६२-१६३ ।। For Private And Personal Use Only जो पुरुष अरिहन्तोंके, गणधरोंके और अन्य मुनिधर्म पालन करनेवालोंके लोकोत्तम गुणोंका तथा उनके वचनोंका उन जैसे गुणोंकी प्राप्तिके लिए सदा ध्यान करते हैं, गुण-ग्रहण करनेका जिनका स्वभाव है, जो सर्वत्र सर्वदा दुर्गुणोंसे दूर रहते हैं, ऐसे पुरुष इस लोक में वृद्धि के लिए विद्वानों द्वारा पूजित ऐसे गुणवान् होते हैं ।।१६४-१६५॥ जो मूढ़ पुरुष दोषों को ही ग्रहण करते हैं और गुणी जनोंके गुणोंको क्वचित् कदाचित् भी ग्रहण नहीं करते २४

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