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१७.१३७ ]
सप्तदशोऽधिकारः
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कायं मत्वा स्वकीयं ये क्षालयन्ति पशुपमाः । शुद्ध चै च मण्डयन्त्यत्र रागिणो भूषणादिभिः ॥ १२३ ॥ कुदेवगुरुधर्मादीन् भजन्ति शुभकाङ्क्षया । कुरूपिणोऽतिबीभत्सा भवेयुस्तेऽशुभोदयात् ॥ १२४ ॥ ये कुर्वन्ति परां भक्ति जिनेन्द्रागमयोगिनाम् । आचरन्ति तपोधमं व्रतानि नियमादिकान् ॥ १२५ ॥ हत्वा च दुर्ममत्वादीन् जयन्तीन्द्रियतस्करान् । स्युस्ते नेत्रप्रिया लोके सुभगाः सुभगोदयात् ॥ १२६॥ मुनौ मलादिलिप्सा घृणां कुर्वन्ति ये शठाः । रूपादीनां मदान् गर्वादीहन्ते परयोषितः ॥ १२७ ॥ उत्पादयन्ति वा प्रीतिं स्वजनानां मृषोक्तिभिः । दुर्भगोदयतस्ते स्युर्दुभगा विश्वनिन्दिताः ॥ १२८ ॥ दद से कुत्सितां शिक्षां येऽन्येषां वञ्चनोद्यताः । विचारेण विना भक्ति पूजां धर्माय कुर्वते ॥ १२९ ॥ देवशास्त्रगुरूणां च सत्यासत्यात्मनां जडाः । ते मत्यावरणान्निन्द्या जायन्ते दुर्धियोऽशुभाः ॥ १३० ॥ सुबुद्धिं ददतेऽन्येषां तपोधर्मादिकर्मसु । विचारयन्ति ते नित्यं तत्त्वातत्त्वादिकान् बहून् ॥ १३१ ॥ सारान् गृह्णन्ति धर्मादीन् मुञ्चन्त्यन्यान् बुधोत्तमाः । मत्यावरणमन्दात्ते सन्ति मेधाविनो विदः || १३२|| पाठ्यन्ति न पाढाहं ये ज्ञानमदगर्विताः । जानन्तोऽपि दुराचारांस्तन्वन्ति स्वान्ययोः खलाः ॥ १३३ ॥ हितं जिनागमं त्यक्त्वा पठन्ति दुःश्रुतं चिदे । वदन्ति कटुकालापान् वचश्चागमनिन्दितम् ॥ १३४॥ परपीडाकरं लोके वासत्यं धर्मदूरगम् । निन्याः सन्ति महामूर्खास्ते श्रुतावरणोदयात् ॥ १३५ ॥ पठन्ति पाठयन्त्यन्यान् ये सदा श्रीजिनागमम् । कालाद्यष्टविधाचारैर्व्याख्यान्ति धर्मसिद्धये ॥१३६॥ बोधयन्ति बहून् मन्यान् धर्मोपदेशनादिभिः । प्रवर्तन्ते स्वयं शश्वनिर्मले धर्मकर्मणि ॥१३७॥
नहीं करते हैं, और तप-नियम- योगादिके द्वारा कायक्लेशको करते हैं, परम भक्ति से जिनदेव और योगियोंके चरण-कमलोंकी सेवा करते हैं, वे शुभकर्म के परिपाकसे दिव्यरूपके धारी होते हैं ।। १२१-१२२ ॥ जो पशु-तुल्य मूढ जीव यहाँपर शरीर को अपना मानकर उसकी शुद्धिके लिए जलसे प्रक्षालन करते हैं, जो रागी पुरुष आभूषणादिसे शरीरका शृंगार करते हैं, जो शुभ (पुण्य) की इच्छा से कुदेव, कुगुरु और कुधर्मादिकी सेवा करते हैं, वे जीव अशुभ कर्म उदयसे अति बीभत्स कुरूपके धारक होते हैं ||१२३-२२४|| जो पुरुष जिनदेव, जिनागम और योगियोंकी परम भक्ति करते हैं, तप, धर्म, व्रत और नियम आदिको धारण करते हैं, खोटे ममत्व आदिका घात कर इन्द्रियरूप चोरोंको जीतते हैं, ये पुरुष सुभग कर्मके उदयसे लोक में सौभाग्यशाली और नेत्रप्रिय होते हैं ॥१२५-१२६ ।। जो शठ मल-मूत्रादिसे लिप्त मुनिपर घृणा करते हैं, जो रूप आदि मदोंके गर्वसे परस्त्रियोंकी इच्छा करते हैं, जो मृषा भाषणोंसे स्वजनोंके प्रीतिको उत्पन्न करते हैं, वे पुरुष दुर्भगनामकर्मके उदयसे दुर्भागी और लोकनिन्दित होते हैं ।। १२७-१२८ । दूसरोंको छलसे ठगनेमें उद्यत जो पुरुष खोटी शिक्षा देते हैं। और जो जड़ पुरुष सद्-असद् विचारके विना धर्मके लिए सच्चे और झूठे देव शास्त्र गुरुओंकी भक्ति-पूजा करते हैं, वे मतिज्ञानावरणकर्मके उदयसे दुर्बुद्धि और अशुभ प्रवृत्तिवाले होते हैं ।। १२९-१३० ।। जो पुरुष दूसरोंको सद्बुद्धि देते हैं, तप और धर्मादि कार्योंमें नित्य ही जो तत्त्व-अतत्व और सत्य-असत्य आदि अनेक बातोंका विचार करते हैं, जो उत्तम बुधजन धर्मादिसार बातोंको ग्रहण करते हैं और असार बातोंको छोड़ देते हैं, वे पुरुष मत्यावरणके मन्द होनेसे मेधावी और विद्वान होते हैं ।। १३१-१३२ ॥ ज्ञानके मदसे गर्व-युक्त जो पुरुष पढ़ानेके योग्य भी व्यक्तिको नहीं पढ़ाते हैं, जो दुष्ट यथार्थ तत्त्वको जानते हुए भी अपने और दूसरोंके लिए दुराचारोंका विस्तार करते हैं, हितकारी जैनागमको छोड़कर ज्ञान-प्राप्ति के लिए कुशास्त्रको पढ़ते हैं, लोकमें कटुक वचनालाप करते हैं, आगम-निन्दित, पर-पीड़ाकारी, असत्य और धर्मसे पराङ्मुख वचन बोलते हैं, वे पुरुष श्रुतज्ञानावरणकर्मके उदयसे महामूर्ख और निन्दनीय होते हैं ।। १३३ - १३५ ।। जो कालशुद्धि आदि आठ प्रकारके ज्ञानाचारोंके साथ सदा श्रीजिनागमको स्वयं पढ़ते हैं, औरोंको पढ़ाते हैं, धर्म-सिद्धि के लिए उसका व्याख्यान करते हैं,
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