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१२.९८] द्वादशोऽधिकारः
११९ धृत्वा स्वहृदये धर्म संवेगाङ्कितविग्रहा । बन्धुभिः सह भृत्यैश्च जगाम निजमन्दिरम् ॥४५॥ जिनेन्द्रो नातिदूरं खमुत्पत्य नेत्रगोचरम् । जनानां मङ्गलारम्भैर्यथोक्तः संयमाप्तये ॥८६॥ आजगाम सुरैः साधं वनं खण्डाभिधं महत् । सच्छायं सफलं रम्यं ध्यानाध्ययनवृद्धिदम् ॥८७॥ तत्रैकस्मिन् शिलापट्टे चन्द्रकान्तमये शुचौ । देवैः प्राग्निर्भिते वृत्ते द्रुमौधच्छायशीतले ॥६॥ चन्दनद्रवदत्ताच्छच्छटामङ्गलमण्डिते । इन्द्राणीकरविन्यस्तरत्नचूर्णोपहारके ॥८९॥ केतुमालावृताकाशे विचित्रपटमण्डपे । धूपधूमातदिग्भागे पर्यन्ततमङ्गले ॥९॥ यानादवातरद वीरो वीरकर्मात्तमानसः । निराकाङ्क्षी शरीरादौ साकाशी मोक्षसाधने ॥११॥ अथ शान्ते जनक्षोभे तत्रासीन उदङमुखः । सर्वत्रारातिमित्रादौ समतां भावयन् पराम् ॥२२॥ क्षेत्रादीन दशबाह्यस्थानुपधींश्चेतनेतरान् । मिथ्यात्वाद्यन्तरङ्गांश्च चतुर्दशातिदुस्त्यजान् ॥१३॥ वस्त्राभरणमाल्यानि त्रिशुद्धया मोहहानये । अत्यजन्निःस्पृहोऽङ्गादौ सस्पृहः स्वात्मशर्मणि ॥९४ ।। ततः सिद्धानमस्कृत्य पल्यङ्कासनमाश्रितः । मोहपाशानिवालुञ्चत्केशौघान् पञ्चमुष्टिभिः ॥१५॥ विरम्य सर्वसावद्यान्मनोवाकायकर्मभिः । अष्टाविंशतिमेवाद्यान् सारान्मूलगुणान् परान् ॥१६॥ आतापनादियोगोत्थान नानोत्तरगुणान् वरान् । व्रतानि समितीगुप्तीः स्वीकृत्य सकला जिनेट ॥१७॥ सर्वत्र समतापनः सामायिकाख्यसंयमम् । कृत्स्नदोषातिगं सारं स्वीचकार गुणाकरम् ॥९८॥
कारको शीघ्र दूर कर अपने हृदयमें धर्मको धारण कर संवेगसे व्याप्त शरीरवाली वह माता बन्धुजनों और सेवकोंके साथ अपने राजमन्दिरको वापस लौट आयी ॥८४-८५।।
तदनन्तर यथोक्त मांगलिक आयोजनोंसे मनुष्योंके नेत्रगोचर आकाशमें न अतिदूर, न अतिसमीप जाते हुए वीर जिनेन्द्र संयमकी प्राप्तिके लिए देवोंके साथ ज्ञातृखण्ड नामक महावनमें पहुँचे, जो कि उत्तम छायावाला, फल-युक्त, रमणीय और ध्यान-अध्ययनकी वृद्धि करनेवाला था ।।८६-८७।। उस वनमें देवोंके द्वारा पहले ही निर्माण किये गये एक गोल चन्द्रकान्तमयी पवित्र शिलापट्टपर वीर भगवान् पालकीसे उतरकर जा विराजे । वह शिलापट्ट वृक्षोंके समूहकी छायासे शीतल था, घिसे हुए चन्दनके रससे जिसपर छींटे दिये गये थे, सांथिया आदि मंगल-चिह्नोंसे जो मण्डित था, इन्द्राणीके हाथों रत्नोंके चूर्णसे जिसपर नन्द्यावर्त आदि बनाये गये थे, जिसके ऊपर चित्र-विचित्र वस्त्रोंका मण्डप शोभायमान था और जो ध्वजा-पंक्तियोंसे आकाशको व्याप्त कर रहा था, जिसके सर्व ओर दिशाओंमें धूपका सुगन्धित धुआँ फैल रहा था और जिसके चारों ओर मंगलद्रव्य रखे हुए थे ।।८८-९०॥ वीर कार्य करने में जिनका मन संलग्न है, जो शरीरादिकमें आकांक्षा-रहित हैं और मोक्षके साधनमें आकांक्षा-युक्त हैं, ऐसे श्री वीरप्रभु जन-संक्षोभ ( कोलाहल ) के शान्त हो जानेपर उस शिलापट्टके ऊपर उत्तर दिशाकी ओर मुख करके विराजमान हुए। उस समय वे शत्रु-मित्रादि सर्व प्राणियों पर परम समता भावकी भावना कर रहे थे ।।९१-९२।। तभी उन्होंने क्षेत्र-वास्तु आदि दशों प्रकार के चेतन-अचेतन परिग्रहोंको तथा अति दाखसे छोड़े जानेवाले मिथः आदि चौदह प्रकारके अन्तरंग परिग्रहोंको एवं वस्त्र, आभूषण और माला आदिकी शरीरादि में निःस्पृह और स्वात्मीय सुखमें सस्पृह होते हुए मोहके नाश करनेके लिए मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक सर्वदाके लिए परित्याग कर दिया ।।९३-९४।। तत्पश्चात् पद्मासनसे बैठकर तथा सिद्धोंको नमस्कार कर मोह-पाशके समान अपने केश-समूहको पाँच मुट्ठियोंसे उखाड़कर फेक दिया और मन-वचन-कायके द्वारा सर्व सावधों ( हिंसादि पापों ) का परित्याग कर सर्व गुणोंके आद्यस्वरूप सारभूत अट्ठाईस परम मूल गुणोंको, आतापन आदि योगोंसे उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकारके उत्तर गुणोंको, पंच महाव्रतोंको, पंच समितियोंको और तीनों गुप्तियोंको वीर जिनराजने स्वीकार करके सर्वत्र समताभावको प्राप्त होकर सर्व दोषोंसे
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