Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 174
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१४.११९एकैकस्यां दिशि ज्ञेयाः प्रत्येकं पालिकेतवः । अष्टोत्तरशतं रम्यास्तरङ्गा इव खाम्बुधेः ।।११९॥ मरुदान्दोलितस्तेषां खे भ्रमन्नंशुकोकरः । व्याजुहर्षरिवाभाति जिनार्चाय जगज्जनान् ॥१२०॥ सक्केतुषु स्रजो रम्याः सौमनस्यो ललम्बिरे । वस्त्रध्वजेषु दिव्यानि सूक्ष्मवस्त्राणि च स्फुटम् ।। १२१॥ इति वर्हादिकेष्वेषु ध्वजेषु सुरशिल्पिभिः । राजन्ते निर्मिता दिव्या मयूराद्याः सुमूर्तयः ॥१२२॥ अशीत्यग्रं सहस्रं स्युर्दिश्येकस्यां च पिण्डिताः । चतुर्दिक्षु नभोद्वित्रिचतुरङ्कप्रमा ध्वजाः ॥१२३॥ ततोऽभ्यन्तरभूभागे शालोऽस्ति द्वितीयो महान् । श्रीमानर्जुननिर्माणः प्राकशालवर्णनासमः ॥१२४॥ पूर्ववद्गोपुराण्यस्य राजतानि भवन्ति वै । तेष्वाभरणविन्यस्ततोरणानि महान्ति च ॥१२५॥ निधयो मङ्गलद्रव्या नाट्यशालाद्वयं भवेत् । तद्वधूपघटौ द्वौ द्वौ महावीथ्युभयं तयोः ॥१२६॥ स्यानाध्यशालयोगीतनर्तनादिकदम्बकम् । शेषोऽत्रापि विधिज्ञेय आद्यशालसमोऽखिलः ॥ १२७।। ततो वीथ्यन्तरेवस्यां कक्षायां भास्वरं वनम् । नानारत्नप्रभोल्करासीत्कल्पमहीरुहाम् ।। १२८॥ रम्याः कल्पद्रुमास्तुङ्गाः सच्छायाः सफला वराः । दिव्यत्रग्वस्त्र भूषाढ्या राजायन्तेऽत्र संपदा ॥१२९॥ देवोदक्कुरवोऽवेशमागता इव सेवितुम् । शोमन्ते दशभेदैः स्वैः सहालं कल्पशाखिभिः ॥१३॥ नेपथ्यानि फलान्येषां पल्लवा अंशुकानि च । मालाः शाखाग्रलम्बिन्यो दोप्ताः प्रारोहयष्टयः ॥१३॥ ज्योतिष्काः ज्योतिरङ्गेषु दीपाङ्गेषु च नाकजाः । भावनेन्द्राः स्रगङ्गेषु प्रति क्रीडा प्रकुर्वते ॥१३२॥ अस्मिन् वनान्तरेऽभूवन् दिव्याः सिद्धार्थ पादपाः । सिद्धार्चाधिष्ठिताइछत्रचामरादिविराजिताः ॥१३३॥ एक-एक दिशामें प्रत्येक चिह्नवाली एक सौ आठ रमणीय ध्वजाएँ जानना चाहिए। वे ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो आकाशरूप समुद्र की तरंगें ही हों ।।११९।। उन ध्वजाओंके पवनसे हिलते और चारों ओर घूमते हुए वस्त्र ऐसे मालूम होते थे मानो जिनराजके पूजनके लिए जगत्के जनोंको बुला ही रहे. हों ।।१२०।। उन दश चिह्नवाली ध्वजाओंमें-से माला चिह्नवाली ध्वजाओंमें रमणीक फूलोंकी मालाएँ लटक रही थीं। वस्त्र-चिह्नवाली ध्वजाओंमें सूक्ष्म चिकने वस्त्र लटक रहे थे ॥१२|| इसी प्रकार मयूर आदि चिह्नवाली ध्वजाओंमें देव-शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर मूर्तिवाले मयूर आदि शोभित हो रहे थे ॥१२२।। वे ध्वजाएँ एक-एक दिशामें एक हजार अस्सी ( १०८०) थीं और चारों दिशाओंकी मिलाकर चार हजार तीन सौ बीस (४३२०) थीं ॥१२३।। उससे आगे चलकर भीतरी भूभागमें चाँदीसे बना हुआ, लक्ष्मीयुक्त दूसरा महान् शाल ( कोट ) था, जिसका वर्णन प्रथम शालके समान ही जानना चाहिए ॥१२४।। इस शालमें भी पूर्वशालके समान ही रजतमयी गोपुर द्वार थे और वहाँपर आभूषणोंसे युक्त बड़े-बड़े तोरण थे ॥१२५।। यहाँपर भी पूर्वके समान नवनिधियाँ, अष्टप्रकारके मंगलद्रव्य, दो-दो नाट्यशालाएँ और दो-दो धूपघट महावीथीके दोनों ओर थे।।१२६।। उन दोनों नाट्यशालाओंमें गीत-नृत्य आदि तथा शेष समस्त विधि भी प्रथम शालके समान जानना चाहिए ॥१२७। इससे आगे वीथीके अन्तरालमें नाना प्रकारके रत्नोंकी प्रभासे शोभित कल्पवृक्षोंका एक देदीप्यमान वन था । जिसमें दिव्य माला, वस्त्र, आभूपण आदिकी सम्पदासे युक्त ऊंचे, फळवाले, और उत्तम छायावाल रमणीक कल्पवृक्ष शोभायमान हो रहे थे ॥१२८-१२९॥ उन्हें देखकर ऐसा ज्ञात होता था मानो देवकुरु और उत्तरकस ही अपने दश जातिके कल्पवृक्षोंके साथ भगवान्की सेवा करनेके लिए यहाँपर आये हैं ।।१३०।। उन कल्पवृक्षोंके फल आभूषणोंके समान, पत्ते वस्त्रोंके समान, और शाखाओंके अग्रभागपर लटकती हुई देदीप्यमान मालाएँ वट-वृक्षकी जटाओंके समान प्रतीत होती थीं ॥१३१।। इन कल्पवृक्षोंमें-से ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके नीचे ज्योतिष्क देव, दीपांग कल्पवृक्षोंके नीचे कल्पवासी देव, और मालांग कल्पवृक्षोंके नीचे भवनवासी इन्द्र क्रीड़ा करते हुए विश्राम कर रहे थे ॥१३२।। इन कल्पवृक्षोंके वनके मध्यमें दिव्य सिद्धार्थ वृक्ष थे, जो कि सिद्ध प्रतिमाओंसे For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296