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श्री-वीरवर्धमानचरिते पदार्थान् स्वेच्छयादत्ते सत्येतरप्ररूपितान् । यो विचारादृते मूढो बहिरात्माग्रिमोऽत्र सः ॥६९॥ हालाहलनिभं घोरं सुखं वैषयिकं शठः । योऽत्रोपादेयबुद्धया सेवते स बहिरात्मकः ॥७॥ ऐक्यं जानाति यो मूढः संसर्गादेहदेहिनोः । जडचिन्मययोः सोऽत्र जडारमा ज्ञानदूरगः ॥७॥ तपःश्रुतव्रताढ्योऽपि ध्यानं यः स्वपरात्मनः । न वेत्ति बहिरात्मासौ स्वविज्ञानबहिःकृतः ।।७२॥ पापं पुण्यं परिज्ञाय बहिरात्मा कुबुद्धितः । कृत्वा क्लेशं च पुण्याय भ्रमेत्तेन भवाटवीम् ॥ ३॥ मत्वेति सर्वथा हेयो बहिरात्मा कुमार्गगः । स्वप्नेऽप्यत्र न कर्तव्यस्तत्सङ्गो जातु धीधनः ॥७४॥ तस्माद्यो विपरीतात्मा विवेकी जिनसूत्रवित् । स्फुटं वेत्ति विचारं च तत्वातत्त्वे शुभाशुभे ॥७५॥ देवादेवे मते सत्यासत्ये धर्मादियोगिषु । दुष्पथे मुक्तिमार्गादौ सोऽन्तरात्मा जिनमतः ॥७६॥ हालाहलविषाद्योऽत्र वेत्ति वैषयिकं सुखम् । सर्वानाकरीभूतं मुमुक्षुः सोऽन्तरात्मवान् ॥७७।। कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः पृथग्भूतं गुणाकरम् । मोहाक्षद्वेषरागाङ्गादिभ्यः स्वात्मानमञ्जसा ॥७८॥ निष्कलं सिद्धसादृश्यं योगिगम्यं च्युतोपमम् । ध्यायेदभ्यन्तरे लोऽत्र ज्ञानी. स्वात्मरतो महान् ॥७९॥ स्वात्मद्रव्यान्यदेहादिद्रव्याणामन्तरं महत् । यो जानाति महाप्राज्ञः सकलं सोऽन्तरात्मभाक् ॥८॥ किमत्र विस्तरोक्तेन निकषग्रावसंनिभम् । सद्विचारे मनःसारं यस्यासौ ज्ञानवान् परः ॥८१॥
सर्वार्थ सिद्धिपर्यन्तसुखश्रीजिनवैभवम् । भजेत्सुचरणज्ञानादिभिश्चात्रान्तरात्मवान् ॥८२॥ ।।६७-६८।। जो जीव इस लोकमें दूसरोंके द्वारा प्ररूपित सत्य-असत्यका विचार न करके स्वेच्छासे यद्वा-तद्वा पदार्थोंको जानता है और उन्हें उसी प्रकारसे ग्रहण करता है, वह पहला बहिरात्मा है ॥६९|| जो शठ पुरुष इन्द्रिय-विषय-जनित, हालाहल विष-सदृश भयंकर वैषयिक सुखको यहाँपर उपादेय बुद्धिसे सेवन करता है, वह बहिरात्मा है ।।७०॥ जो मूढ़ जड़ शरीर
और चेतन आत्माको शरीरके संसर्गमात्रसे एक मानता है, वह सद्-ज्ञानसे रहित बहिरात्मा है ॥७१॥ तप, श्रुत और तसे युक्त हो करके भी जो पुरुष स्व-पर आत्माके विवेकको नहीं जानता है, वह स्वविज्ञानसे बहिष्कृत बहिरात्मा है ।।७२।। बहिरात्मा जीव पुण्य-पापको जानकर कुबुद्धिसे पुण्यके लिए क्लेश करके उसके फलसे भव-वनमें परिभ्रमण करता है ॥७३।। ऐसा जानकर बुद्धिमानोंको कुमार्गमें ले जानेवाला बहिरात्मपना सर्वथा छोड़ देना चाहिए और उसकी संगति यहाँ स्वप्नमें भी कभी नहीं करनी चाहिए ॥७४॥
इस ऊपर बतलाये गये बहिरात्माके स्वरूपसे जो विपरीत स्वरूपका धारक है, अर्थात् देह और देहीका विवेकवाला है, जिनसूत्रका वेत्ता है, जो तत्त्व-अतत्त्व और शुभ-अशभके विचारको स्पष्ट जानता है, देव-अदेवको, सत्य-असत्य मतको, धर्म-अधर्मयोगी कार्योंको, कुमार्ग और मुक्तिमाग आदिको भलीभाँतिसे जानता है, उसे जिनराजोंने अन्तरात्मा माना है ॥७५-७६।। जो इन्द्रिय-विषयजनित सुखको हालाहल विषके समान सर्व अनर्थोकी खानि मानता है और जो संसारके बन्धनोंसे छूटना चाहता है, वह अन्तरात्मा कहा जाता है ॥७॥ जो निश्चयतः कर्मोंसे, कोंके कार्योंसे, मोह, इन्द्रिय और राग-द्वेषादि अपनी अनन्तगुणाकर आत्माको पृथग्भूत ( भिन्न ) निष्कल (शरीर-रहित) सिद्ध-सदृश, योगि-गम्य और उपमा-रहित अपने भीतर ध्यान करता है, वह स्वात्म-रत ज्ञानी और महान् अन्तरात्मा है ।।७८-७९।।
जो अपने आत्मद्रव्य और देहादि अन्य द्रव्योंके सर्व महान् अन्तरको जानता है, वह महाप्राज्ञ अन्तरात्मा है ।।८। इस विषयमें अधिक कहने से क्या, जिसका मन सद्विचारमें कसौटीके पाषाण-तुल्य है, जो असार असद्-विचारका त्याग कर सद्-विचारको ही ग्रहण करता है, वह परम ज्ञानवान् अन्तरात्मा है ।।८।। यह अन्तरात्मा अपने उत्तम चारित्र और ज्ञानादिगुणोंके द्वारा इस संसारमें सर्वार्थसिद्धि तकके सुखोंको और जिनेन्द्र के
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