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१७० श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१६.१२४शब्दोऽनेकविधो बन्धः सूक्ष्मः स्थूलो ह्यपेक्षया । संस्थानं षड्विधं भेदस्तमश्छायातपस्तथा ॥१२४॥ उद्योताया अमी स्युर्विमावपर्यायसंज्ञकाः । पुद्गलानां स्वभावाख्याः पर्याया अणुषु स्थिताः ॥१२५॥ शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः स्युः पुद्गलात्मनाम् । पर्यायेण भवन्त्येव देहिनां पञ्चेन्द्रियादयः ॥१२६॥ मृत्युजीवितशर्माशर्मादीननेकशोऽङ्गिनाम् । उपग्रहान् प्रकुर्वन्ति पुद्गला विविधा भुवि ॥१२७॥ एकावपेक्षया न स्यात्कायोऽत्र पुद्गलात्मनाम् । बह्वण्वपेक्षया स्कन्धे झुपचारास उच्यते ॥१२८॥ जीवपुद्गलयोधर्मः सहकारी गतेर्मतः । अमूर्तो निष्क्रियो नित्यो मत्स्यानां जलवद्भुवि ॥१२९ ॥ स ह्यकर्ताप्यधर्मः स्याजीवपुद्गलयोः स्थितेः । नित्योऽमूर्तः क्रियाहीनश्छायेव पथिकाङ्गिनाम् ॥१३॥ लोकालोकनभोभेदादाकाशोऽत्र द्विधा भवेत् । अवकाशप्रदः सर्वद्रव्याणां मूर्तिवर्जितः ॥१३॥ धर्माधर्मयुताः कालपुद्गला जीवपूर्वकाः । खे यावत्यत्र तिष्ठन्ति लोकाकाशः स उच्यते ॥१३२॥ तस्मादबहिरनन्तोऽस्त्याकाशोऽन्यद्रव्यवर्जितः । नित्योऽमूर्तः क्रियाहीनः सर्वज्ञदृष्टिगोचरः ॥१३३॥ नवजीर्णादिपर्यायैव्याणां यः प्रवर्तकः । समयादिमयः कालो व्यवहाराभिधोऽस्ति सः ॥१३॥ लोकाकाशप्रदेशे ह्येकैका अणवः स्थिताः । मिन्नभिन्नप्रदेशस्था रखानामिव राशयः ॥१३॥ तेषामसंख्यकालाणूनां निष्क्रियमयात्मनाम् । जिनैर्निश्चयकालाख्यसंज्ञान कथ्यते सताम् ॥१३६॥ धर्माधर्मकजीवानां लोकाकाशस्य कीर्तिताः । असंख्याताः प्रदेशाः किन्वतः कालस्य जातु न ॥१३७॥ अतः कालं विना ते पञ्चास्तिकाया भवन्ति च । कालेन सह षट्वव्याः कथ्यन्ते श्रीजिनागमे ॥१३८॥
विभावरूप गुण हैं ।।१२३।। अनेक प्रकारका शब्द, स्थूल-सूक्ष्मकी अपेक्षासे दो प्रकारका बन्ध, छह प्रकारका संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप तथा उद्योत आदि पुद्गलकी विभाव संज्ञावाली पर्याय है, (जो कि स्कन्धोंमें होती है ) । पुद्गलोंकी स्वभावपर्याय अणुओंमें होती है ॥१२४-१२५॥ शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास, और पाँच इन्द्रियाँ आदि सब पुद्गलोंकी पर्याय हैं, जो कि प्राणियोंके होती हैं ।।१२६।। ये पुद्गल संसारमें जीवोंके जीवन, मरण, सुख, दुःख आदि अनेक प्रकारके उपकारोंको करते हैं ॥१२७॥ एक अणुकी अपेक्षा संसारमें शरीर नहीं बन सकता है, किन्तु बहुत अणुओंकी अपेक्षासे शरीर बनता है, अतः स्कन्धमें अणुके उपचारसे शरीरको पुद्गलकी पर्याय कहा जाता है ।।१२८॥
धर्मास्तिकाय द्रव्य जीव और पुद्गलोंकी गतिका सहकारी कारण माना गया है। कर्ता या प्रेरक नहीं है । जैसे संसारमें जल मत्स्यकी गतिका सहकारी कारण माना जाता है। यह धर्मास्तिकाय अमूर्त, निष्क्रिय और नित्य है ॥१२९।। अधर्मास्तिकाय द्रव्य जीव और पुद्गलोंकी स्थितिका सहकारी कारण है, जैसे पथिकजनोंके ठहरने में छाया सहकारी कारण मानी जाती है। यह अधर्मास्तिकाय द्रव्य भी स्थितिका कर्ता या प्रेरक नहीं है और नित्य अमूर्त और क्रियाहीन हे ॥१३०॥ लोकाकाश और अलोकाकाशके भेदसे यहाँ आकाश दो प्रकारका है। यह सर्व द्रव्योंको ठहरनेके लिए अवकाश देता है। यह भी मूर्ति-रहित और निष्क्रिय है ॥१३१।। जितने आकाशमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव रहते हैं, वह लोकाकाश कहा जाता है ॥१३२॥ उससे बाहर जितना भी अनन्त आकाश है, वह अलोकाकाश कहलाता है । उसमें आकाशके सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं पाया जाता है। यह दोनों भेदरूप आकाश नित्य, अमूर्त, क्रियाहीन और सर्वज्ञके दृष्टिगोचर है ॥१३३।। जो द्रव्योंका नवीन जीणं आदि पर्यायोंके द्वारा परिवर्तन करता है, वह समयादिरूप व्यवहारकाल है ॥१३४।। लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिके समान जो एक-एक कालाणु भिन्न-भिन्न प्रदेशरूपसे स्थित हैं, उन निष्क्रिय स्वरूपवाले असंख्य कालाणुओंको सन्तोंके लिए जिनेन्द्रोंने 'निश्चयकाल' इस नामसे कहा है ॥१३५-१३६|| धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, एक जीव और लोकाकाश, इनके असंख्यात प्रदेश कहे गये हैं, किन्तु कालके प्रदेश कभी नहीं
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