Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 200
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६८ श्री वीरवर्धमानचरिते [ १६.९७ विज्ञेयः परमात्मासौ गुणस्थानद्वयेऽन्तिमे । त्रिजगज्जनताराध्यः सयोग्ययोगिसंज्ञकः ||१७|| द्रव्यभावाभिधैः प्राणैर्यतोऽजीवञ्च जीवति । जीविष्यति ततो जीवः कथ्यते सार्थनामकः ॥ ९८ ॥ पञ्चेन्द्रियायाः प्राणा मनो वाक्कायजास्त्रयः । आयुरुच्छ्वासनिःश्वासः प्राणा दशेतिसंज्ञिनाम् ॥ ९९ ॥ नव प्राणा मता सद्भिरसंज्ञिनां मनो विना । कर्णादृते भवन्त्यष्टौ चतुरिन्द्रियदेहिनाम् ॥ १०० ॥ नयन विना सप्त प्राणस्त्रीन्द्रियजन्मिनाम् । नासिकामन्तरेण स्युः षड्प्राणाः द्वीन्द्रियात्मनाम् ॥ १०१ ॥ एकाक्षाणां चतुःप्राणा वाङ्मुखाभ्यां बिना स्मृताः । विज्ञेया आगमे पर्याप्तानां प्राणा अनेकधा ॥ १०२ ॥ उपयोगमयो जीवश्चेतनालक्षणो महान् । अकर्ता कर्मनो कर्मबन्धमोक्षादिकर्मणाम् ॥१०३॥ असंख्यातप्रदेशी किलामूर्तः सिद्धसंनिभः । परद्रव्यातिगो दक्षैर्निश्चयेनात्र कथ्यते ॥ १०४ ॥ अशुद्धनिश्चयेनासौ रागादिभावकर्मणाम् । कर्ता च तत्फलभोक्ता स्वात्मज्ञानबहिस्थितः || १०५॥ कर्मन कर्मणां कर्ता व्यक्तोपचरितान्नयात् । व्यवहारादसद्भूतात्स्वात्मध्यानपराङ्मुखः ॥१०६॥ व्यवहारनयेना सद्भूतोपचरितात्मना । कर्ता घटपटादीनां संसारी स्वाक्षवञ्चितः ॥ १०७ ॥ काय प्रमाण आत्मायं समुद्घातं विना भवेत् । युक्तः संहारविस्ताराभ्यां प्रदीप इवान्वहम् ॥ १०८ ॥ वेदनाख्यः कषायाभिधो विकुर्वणनामकः । मारणान्तिकनामा तैजस आहारकाह्वयः ॥१०९॥ ततः केवलिसंज्ञोऽमी समुद्घाता हि सप्त च । त्रयस्ते योगिनां ज्ञेयाः शेषाः सर्वात्मनां मताः ॥ ११० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणस्थानोंके मध्यमें जो सात शुभ गुणस्थान हैं, उनमें रहनेवाले शिवमार्गगामी क्रमशः विकसित गुणवाले, अनेक प्रकारके मध्यम अन्तरात्मा हैं || २५-२६| | अन्तिम दो गुणस्थानों में रहनेवाले परमात्मा जानना चाहिए। उनमें जो तेरहवें गुणस्थानवर्ती हैं, वे सयोगिजिन हैं। और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिजिन कहलाते हैं । ये दोनों प्रकारके परमात्मा तीन लोककी जनताके आराध्य हैं ||१७|| यतः जीव द्रव्यप्राणों और भावप्राणोंसे भूतकाल में जीता था, वर्तमानकाल में जी रहा है और भविष्यकालमें जीवेगा, अतः उसका 'जीव' यह सार्थक नाम कहा जाता है ||१८|| स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय ये तीन योग, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दश द्रव्यप्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके होते हैं ||१९|| मनके विना शेष नौ उक्त प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंसे सन्त पुरुषोंने माने हैं । उक्त नौ प्राणों में से कर्णेन्द्रियके विना शेष आठ प्राण चतुरिन्द्रिय जीवोंके होते हैं ॥ १०० ॥ इनमें से नेत्रेन्द्रियके बिना शेष सात प्राण त्रीन्द्रिय प्राणियों के होते हैं । इनमें से प्राणेन्द्रिय के विना शेष छह प्राण द्वीन्द्रिय जीवों के होते हैं ||१०१ || उनमें से रसनेन्द्रिय और वचनके विना शेष चार प्राण एकेन्द्रिय जीवों के आगम में माने गये हैं । इस प्रकार पर्याप्त जीवोंके ये अनेक प्रकारके प्राण जानना चाहिए || १०२ || ज्ञान और दर्शनरूप चेतना भावप्राण है । निश्चय नयसे जीव चेतना लक्षणवाला है, उपयोगमयी है, महान है, कर्म नोकर्म और बन्ध-मोक्षादि कार्योंका अकर्ता है, असंख्यात प्रदेशी है, अमूर्त है, सिद्ध भगवान् के सदृश है और सर्व परद्रव्योंसे रहित है ऐसा दक्षपुरुष निश्चयनयकी अपेक्षा से कहते हैं ।। १०३-१०४ || अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे वह जीव रागादि भावकर्मोंका कर्ता और उनके फलका भोक्ता है और अपने आत्मीय ज्ञान से बहिर्भूत है ||१०५|| अपने आत्मध्यानसे पराङ्मुख हुआ जीव उपचरित व्यवहारनयसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका, और औदारिकादि शरीररूप नोकर्मीका कर्ता है, तथा असद्भूतोपचरित व्यवहारनयसे यह अपनी इन्द्रियोंसे उगाया हुआ संसारी जीव घट-पट आदि द्रव्यों का भी कर्ता कहा जाता है ।। १०६ - १०७ ।। समुद्घात अवस्थाके सिवाय यह जीव सदा शरीर प्रमाण रहता है । संकोच - विस्तारगुणके निमित्तसे यह छोटे-बड़े शरीर में प्रदीपके समान निरन्तर अवगाहको प्राप्त होता रहता है || १०८ || मूल शरीरको नहीं छोड़ते हुए कुछ आत्म For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296