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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १६.९७
विज्ञेयः परमात्मासौ गुणस्थानद्वयेऽन्तिमे । त्रिजगज्जनताराध्यः सयोग्ययोगिसंज्ञकः ||१७|| द्रव्यभावाभिधैः प्राणैर्यतोऽजीवञ्च जीवति । जीविष्यति ततो जीवः कथ्यते सार्थनामकः ॥ ९८ ॥ पञ्चेन्द्रियायाः प्राणा मनो वाक्कायजास्त्रयः । आयुरुच्छ्वासनिःश्वासः प्राणा दशेतिसंज्ञिनाम् ॥ ९९ ॥ नव प्राणा मता सद्भिरसंज्ञिनां मनो विना । कर्णादृते भवन्त्यष्टौ चतुरिन्द्रियदेहिनाम् ॥ १०० ॥ नयन विना सप्त प्राणस्त्रीन्द्रियजन्मिनाम् । नासिकामन्तरेण स्युः षड्प्राणाः द्वीन्द्रियात्मनाम् ॥ १०१ ॥ एकाक्षाणां चतुःप्राणा वाङ्मुखाभ्यां बिना स्मृताः । विज्ञेया आगमे पर्याप्तानां प्राणा अनेकधा ॥ १०२ ॥ उपयोगमयो जीवश्चेतनालक्षणो महान् । अकर्ता कर्मनो कर्मबन्धमोक्षादिकर्मणाम् ॥१०३॥ असंख्यातप्रदेशी किलामूर्तः सिद्धसंनिभः । परद्रव्यातिगो दक्षैर्निश्चयेनात्र कथ्यते ॥ १०४ ॥ अशुद्धनिश्चयेनासौ रागादिभावकर्मणाम् । कर्ता च तत्फलभोक्ता स्वात्मज्ञानबहिस्थितः || १०५॥ कर्मन कर्मणां कर्ता व्यक्तोपचरितान्नयात् । व्यवहारादसद्भूतात्स्वात्मध्यानपराङ्मुखः ॥१०६॥ व्यवहारनयेना सद्भूतोपचरितात्मना । कर्ता घटपटादीनां संसारी स्वाक्षवञ्चितः ॥ १०७ ॥ काय प्रमाण आत्मायं समुद्घातं विना भवेत् । युक्तः संहारविस्ताराभ्यां प्रदीप इवान्वहम् ॥ १०८ ॥ वेदनाख्यः कषायाभिधो विकुर्वणनामकः । मारणान्तिकनामा तैजस आहारकाह्वयः ॥१०९॥ ततः केवलिसंज्ञोऽमी समुद्घाता हि सप्त च । त्रयस्ते योगिनां ज्ञेयाः शेषाः सर्वात्मनां मताः ॥ ११० ॥
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गुणस्थानोंके मध्यमें जो सात शुभ गुणस्थान हैं, उनमें रहनेवाले शिवमार्गगामी क्रमशः विकसित गुणवाले, अनेक प्रकारके मध्यम अन्तरात्मा हैं || २५-२६| | अन्तिम दो गुणस्थानों में रहनेवाले परमात्मा जानना चाहिए। उनमें जो तेरहवें गुणस्थानवर्ती हैं, वे सयोगिजिन हैं। और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिजिन कहलाते हैं । ये दोनों प्रकारके परमात्मा तीन लोककी जनताके आराध्य हैं ||१७||
यतः जीव द्रव्यप्राणों और भावप्राणोंसे भूतकाल में जीता था, वर्तमानकाल में जी रहा है और भविष्यकालमें जीवेगा, अतः उसका 'जीव' यह सार्थक नाम कहा जाता है ||१८|| स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय ये तीन योग, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दश द्रव्यप्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके होते हैं ||१९|| मनके विना शेष नौ उक्त प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंसे सन्त पुरुषोंने माने हैं । उक्त नौ प्राणों में से कर्णेन्द्रियके विना शेष आठ प्राण चतुरिन्द्रिय जीवोंके होते हैं ॥ १०० ॥ इनमें से नेत्रेन्द्रियके बिना शेष सात प्राण त्रीन्द्रिय प्राणियों के होते हैं । इनमें से प्राणेन्द्रिय के विना शेष छह प्राण द्वीन्द्रिय जीवों के होते हैं ||१०१ || उनमें से रसनेन्द्रिय और वचनके विना शेष चार प्राण एकेन्द्रिय जीवों के आगम में माने गये हैं । इस प्रकार पर्याप्त जीवोंके ये अनेक प्रकारके प्राण जानना चाहिए || १०२ || ज्ञान और दर्शनरूप चेतना भावप्राण है । निश्चय नयसे जीव चेतना लक्षणवाला है, उपयोगमयी है, महान है, कर्म नोकर्म और बन्ध-मोक्षादि कार्योंका अकर्ता है, असंख्यात प्रदेशी है, अमूर्त है, सिद्ध भगवान् के सदृश है और सर्व परद्रव्योंसे रहित है ऐसा दक्षपुरुष निश्चयनयकी अपेक्षा से कहते हैं ।। १०३-१०४ || अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे वह जीव रागादि भावकर्मोंका कर्ता और उनके फलका भोक्ता है और अपने आत्मीय ज्ञान से बहिर्भूत है ||१०५|| अपने आत्मध्यानसे पराङ्मुख हुआ जीव उपचरित व्यवहारनयसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका, और औदारिकादि शरीररूप नोकर्मीका कर्ता है, तथा असद्भूतोपचरित व्यवहारनयसे यह अपनी इन्द्रियोंसे उगाया हुआ संसारी जीव घट-पट आदि द्रव्यों का भी कर्ता कहा जाता है ।। १०६ - १०७ ।। समुद्घात अवस्थाके सिवाय यह जीव सदा शरीर प्रमाण रहता है । संकोच - विस्तारगुणके निमित्तसे यह छोटे-बड़े शरीर में प्रदीपके समान निरन्तर अवगाहको प्राप्त होता रहता है || १०८ || मूल शरीरको नहीं छोड़ते हुए कुछ आत्म
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