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१६.१२३ ]
षोडशोऽधिकारः स्वभावाख्या गुणा अस्य केवलावगमादयः। मतिज्ञानादयो ज्ञेया विभावाख्या विधिप्रजाः ॥११॥ विभावाख्याश्च पर्याया नृनारकसुरादयः । शुद्धास्तस्य प्रदेशाः स्युः स्वभावाख्या वपुश्च्युताः ॥१२॥ विनाशः प्राक्शरीरस्य प्रादुर्भावोऽपरस्य च । ध्रौव्य एव स आत्मेति तस्योत्पादादयस्त्रयः ॥११३॥ इत्यादिबहुधा जीवतत्त्वं जिनेन्द्र आदिशत् । विचित्रैर्नयभङ्गायेदृग्विशुद्धय गणान् प्रति ॥११४॥ अथ पुद्गल एवान धर्मोऽधर्मो द्विधा नभः । कालश्च पञ्चधैवेत्यजीवतत्वं जगौ जिनः ॥११५॥ वर्णगन्धरसस्पर्शमयाश्चानन्तपुद्गलाः । पूरणाद्गलनादत्र संप्राप्तान्वर्थनामकाः ॥११६॥ अणुस्कन्धविभेदाभ्यां सामान्यात्पुद्गला द्विधा । अविमागी ह्यणुः स्कन्धा बहुभेदा सुविस्तरात् ॥११७॥ अथवा सूक्ष्मसूक्ष्मादिभेदैस्ते षड्विधा मनाः । सूक्ष्मसूक्ष्मास्ततः सूक्ष्माः सूक्ष्मस्थूलाश्च पुद्गलाः ॥ स्थूलसूक्ष्मास्तथा स्थूलाः स्थूलस्थूला इति स्फुटम् । पुद्गलाः षड्विधा ज्ञेया स्निग्धसूक्ष्मगुणान्विताः ॥ एकोऽणुः सूक्ष्मसूक्ष्मः स्याददृश्यो जनचक्षुषाम् । अष्टकर्ममयाः स्कन्धाः सूक्ष्मा भवन्ति पुद्गलाः॥१२०॥ शब्दाः स्पर्शा रसा गन्धाः सूक्ष्मस्थूलाख्यपुद्गलाः । विज्ञेयाः स्थूलसूक्ष्मास्ते हायाज्योत्स्नातपादयः ॥ जलज्वालादयोऽनेकशः स्थूलाः पुद्गला मताः। भूविमानादिधामाद्याः स्थूलस्थूला हि रूपिणः ॥१२२॥ स्पर्शाया विश तियें स्युरणौ च निर्मला गुणाः । ते स्वभावाभिधाः स्कन्धे विभावाख्या गुणाः परे ॥१२३॥
प्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्घात कहते हैं। वह सात प्रकारका है-१ वेदना, २ कषाय, ३ वैक्रियिक, ४ मारणान्तिक, ५ तेजस, ६ आहारक और ७ केवलिसमुद्घात । इन सात समुद्घातोंमेंसे अन्तके तीन समुद्घात योगियोंके जानना चाहिए और प्रारम्भके शेष चार समुद्रात सर्व संसारी जीवोंके माने गये हैं ॥१०२-११०|| जीवक कंवलज्ञान, केवलदर्शन आदि स्वाभाविक गुण हैं और मतिज्ञानादि कमें-जनित वैभाविक गण जानना चाहिए ॥११॥ मनुष्य नारक और देवादि वैभाविक पर्याय है और शरीर-रहित शुद्ध आत्मप्रदेश स्वाभाविक पर्याय है ।।११२।। संसारी जीव जन्म-मरण करता रहता है, अतः मरण-समय पूर्व शरीरका विनाश होता है, जन्म लेते हुए नवीन शरीरका उत्पाद होता है और आत्मा तो दोनों ही अवस्थाओंमें वही का वही ध्रौव्यरूपसे रहती है, अतः जीवके उत्पाद व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही हैं ।।११३॥ इस प्रकारसे जिनेन्द्रदेवने अनेक नय-भंगादिकी विवक्षासे मनुष्य-देवादि गणोंको सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके लिए जीवतत्त्वका अनेक प्रकारसे उपदेश दिया ॥११४।।
तत्पश्चात् जिनदेवने अजीवतत्त्वका उपदेश देते हुए कहा कि वह पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोक-अलोकरूप आकाश और कालके भेदसे पाँच प्रकारका है ।।११५।। पुद्गल अनन्त हैं और वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शमय है । पूरण और गलन होनेसे यह 'पुद्गल' ऐसा सार्थक नामवाला है ।।११६।। सामान्यतः अणु और स्कन्धके भेदसे पुद्गल दो प्रकारका है । पुद्गलके अविभागी अंशको अणु कहते हैं। दो या दो से अधिक अणुओंके समुदायको स्कन्ध कहते हैं। विस्तार की अपेक्षा वह अनेक भेदवाला है ॥११७॥ अथवा सूक्ष्मसूक्ष्म आदिके भेदसे पुद्गलके छह भेद माने गये हैं, जो इस प्रकार हैं-१. सूक्ष्मसूक्ष्म, २. सूक्ष्म, ३. सूक्ष्मस्थूल, ४. स्थूलसूक्ष्म, ५. स्थूल और ६. स्थूलस्थूल । ये छहों प्रकार के पुद्गल स्निग्ध
और रूक्ष गणसे संयुक्त जानना चाहिए ॥११८-११९।। एक अण सूक्ष्मसक्ष्म पुदगल है, जो कि मनुष्योंकी आँखोंसे अदृश्य है। आठ कर्ममयी स्कन्ध सूक्ष्म पुद्गल हैं ॥१२०।। शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध ये सूक्ष्मस्थूल पुद्गल हैं। छाया, चन्द्रिका, आतप आदि स्थूलसूक्ष्म पुद्गल हैं ॥१२१॥ जल, अग्निज्वाला आदि अनेक प्रकार स्थूल पुद्गल माने गये हैं और भूमि, विमान, पर्वत, मकान आदि स्थूलस्थूल पुद्गल जानना चाहिए ॥१२२।। (पुद्गलमें जो स्पर्शादि चार गुण कहे गये हैं, उनमें स्पर्श के आठ भेद हैं, रसके पाँच, गन्धके दो और वर्णके पाँच भेद होते हैं। ) स्पर्शादिके ये बीस गुण अणुमें निर्मल स्वाभाविक हैं और स्कन्धमें वे स्पर्शादि
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