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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[ १७.७६इत्याद्यपरदुष्कर्मरता ये भूढमानसाः । आर्तध्यानेन ते प्राप्य मरणं दुःखविठ्ठलाः ॥७॥ तिर्यग्गतीः प्रगच्छन्ति बह्वीर्दुःखखनीद्रुतम् । मरणोत्पत्तिसंपूर्णाः पराधीनाः सुखच्युताः ॥७॥ नास्तिका ये दुराचाराः परलोकं वृषं तपः । वृत्तं जिनेन्द्रशास्त्रादीन् मन्यन्ते न च दुर्धियः ॥७८॥ तेऽत्यन्तविषयासक्तास्तीमिथ्यात्वपूरिताः । अन्तातीतं निकोतं प्रयान्ति दुःखैकसागरम् ॥७९॥ अनन्तकालपर्यन्तं महादुःखं वचोऽतिगम् । भुञ्जन्ति तत्र ते पापान्मरणोत्पत्तिजं खलाः ॥४०॥ तीर्थेशां सद्गुरूणां च ज्ञानिनां धर्मिणां सदा । तपस्विनां च कुर्वन्ति सेवां मक्तिं च येऽर्चनाम् ।।८१॥ महावतानि चाहं निर्ग्रन्थाज्ञां पालयन्ति ये । अणुव्रतानि सर्वाणि मुनयः श्रावका मुदा ॥२॥ द्विषड्भेदतपांस्येव स्वशक्त्या ये प्रकुर्वते । कषायेन्द्रियचौराणां विधाय निग्रहं बुधाः ॥८॥ ध्यायन्ति धर्म शुक्लाख्यध्यानानि जितमानसाः । आतरौद्राणि चाहत्य शुभलेश्याशयान्विताः ॥८॥ दधते दृष्टिहारं ये हृदये कर्णयोरपि । ज्ञानकुण्डलयुग्मे च मूर्ति चारित्रशेखरम् ॥८५|| श्रयन्ति येऽतिसंवेगं भवभोगाङ्गधामसु । भावयन्ति सदाचाराप्त्यै भावनाः शुभाः ॥८६॥ कुर्वन्ति प्रत्यहं धर्म क्षमाद्यैर्दशलक्षणः । स्वयं ये सर्वशक्त्या च वाचाऽन्येषां दिशन्त्यलम् ॥८॥ इत्याद्यन्यैः शुभाचारैरर्जयन्ति महावृषम् । ये ते सर्वे शुभध्यानान्मृत्वा यान्ति सुरालयम् ॥४८॥ श्रावका मुनयो वात्र विश्वसौख्यकसागरम् । सर्वदुःखातिगं रम्यं पुण्यभाजां कुलालयम् ॥८९॥ ये दृष्टिभूषिता दक्षा नियमेन व्रजन्ति ते । परं कल्पं न जात्येषां मतयो ब्यन्तरादिकाः ॥१०॥
अज्ञानतपसा मूढाः कायक्लेशं चरन्ति ये। नीचदेवगतिं व्यन्तरादिकां तेऽपि यान्त्यहो ॥११॥ तथा इसी प्रकारके अन्य दुष्कर्मों के करनेमें जो मूढचित्त पुरुष संलग्न रहते हैं, वे आर्तध्यानसे मरण कर दुःखोंसे विह्वल हो बहुत दुःखोंकी खानिरूप तिर्यग्गतिमें जाते हैं, जहाँ पर वे उत्पत्तिसे लेकर मरण-पर्यन्त पराधीन और दुःखी रहते हैं ।।७३-७७॥ जो नास्तिक हैं, दुराचारी हैं, परलोक, धर्म, तप, चारित्र, जिनेन्द्र शास्त्र आदिको नहीं मानते हैं, दुर्बुद्धि हैं, विषयों में अत्यन्त आसक्त हैं, तीव्र मिथ्यात्वसे भरे हुए हैं, ऐसे जीव अनन्त दुःखोंके सागर ऐसे निगोदको जाते हैं। और वहाँ पर वे पापी अपने पापसे अनन्त काल-पर्यन्त वचनातीत जन्म-मरण-जनित महादुःखोंको भोगते हैं ।।७८-८०॥
जो तीर्थंकरोंकी, सद्-गुरुओंकी, ज्ञानियोंकी, धर्मात्माओंकी, तपस्वियोंकी सदा सेवा भक्ति और पूजा करते हैं, जो पंच महाव्रतोंका और अर्हन्तदेव वा निर्ग्रन्थ गुरुओंकी आज्ञाका पालन करते हैं, ऐसे मुनिजन है, तथा जो सर्व अणुव्रतोंका पालन करते हैं, ऐसे श्रावक हैं, जो हर्षसे अपनी शक्तिके अनुसार बारह प्रकारके तपोंको करते हैं, जो ज्ञानी कषाय और इन्द्रियरूप चोरोंका निग्रह करके तथा आर्त-रौद्रध्यानको दूर करके धर्मध्यान और शुक्लध्यानको ध्याते हैं, मनको जीतनेवाले हैं, शुभलेश्याओंसे जिनका चित्त युक्त है, जो अपने हृदयमें सम्यग्दर्शन रूपी हारको, दोनों कानों में ज्ञानरूप कुण्डल-युगलको, और मस्तकपर चारित्ररूप मुकुटको धारण करते हैं, जो संसार, शरीर, भोग और भवनादिकमें अतिसंवेग भाव रखते हैं, जो सदाचारकी प्राप्तिके लिए सदा शुभ भावनाओंको भाते रहते हैं, जो प्रतिदिन क्षमादि दशलक्षणोंसे उत्तम धर्मको अपनी शक्तिके अनुसार स्वयं करते हैं, और वचनोंके द्वारा धर्म-पालनका भली-भाँति उपदेश देते हैं, इन और इसी प्रकारके अन्य शुभ आचरणोंसे जो महान् धर्मका उपार्जन करते हैं, वे सब जीव मरकर शुभध्यानके योगसे देवोंके आलय (स्वर्ग) को जाते हैं ॥८१-८८।। जो संसारमें श्रावक, मुनि और सम्यग्दर्शनसे भूषित दक्ष पुरुष हैं, वे नियमसे कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं, उनकी व्यन्तरादि गति कभी नहीं होती हैं ।।८९-९०।। जो मूढ अज्ञान तपसे कायक्लेश करते हैं, वे जीव ही व्यन्तरादिकी नीचगतिको प्राप्त करते हैं ।।९।।
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