Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 204
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ श्री वीरवर्धमानचरिते [ १६.१५४ दान लाभादिपञ्चानां पुंसां विघ्नं करोत्यहो । अन्तरायामिधं कर्म भाण्डागारीव सर्वदा ॥ १५४ ॥ इत्याद्या बहुधा ज्ञेयाः स्वभावा अष्टकर्मणाम् । प्रतिक्षणभवा नृणां कर्मागमनहेतवः ॥ १५५ ॥ दृचिदावृतिवेद्यानामन्तरायस्य चोत्तमा । स्यास्त्रिंशत्कोटिकोटी सागराणां प्रमिता स्थितिः ॥ १५६॥ कोटीकोटिसमुद्राणां चोत्कृष्टा सप्ततिप्रमा । स्थितिदु मोहनीयस्य विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥ १५७ ॥ त्रयत्रिंशत्पयोराशिरायुषः स्थितिरूर्जिता । इत्यष्टकर्मणामाह जिनेन्द्रः स्थितिमुत्तमाम् ॥ १५८ ॥ वेदनीयस्य च द्वादशमुहूर्तप्रमा स्थितिः । जघन्याष्टमुहूर्तप्रमाणात्र नामगोत्रयोः ॥ १५९ ॥ स्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमा शेषपञ्चकर्मणाम् । मध्यमा बहुधा ज्ञेया सर्वेषां कर्मणां नृणाम् ॥ १६० ॥ अशुभप्रकृतीनां स्यादनुभागश्चतुर्विधः । निम्बकाञ्जीरसादृश्यो विषहालाहलोपमः ॥१६१॥ शुभप्रकृति सर्वासामनुभागः शुभो भवेत् । गुडखण्डसमः शर्करासुधासंनिभोऽङ्गिनाम् ॥१६२॥ इति क्षणक्षणोत्पन्नोऽनुभागोऽखिलकर्मणाम् । सुखदुःखादिदोऽनेकधा संसाराध्वगामिनाम् ॥ १६३॥ सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु संबन्धं यान्ति पुद्गलाः । अनन्तानन्तसंख्याः सूक्ष्माः प्रदेशावगाहिनः ॥ १६४॥ रागिणोऽणुभृते ह्येकक्षेत्रे यं च निरन्तरम् । प्रदेशबन्ध एव स्यात् सोऽखिला शर्मसागरः ॥ १६५ ॥ इति चतुर्विधो बन्धो विश्व दुःखनिबन्धनः । हन्तव्यः शत्रुवदक्षैर्दृक् चिवृत्ततपः शरैः ॥ १६६ ॥ चैतन्यपरिणामो यो रागद्वेषातिगो महान् । कर्मास्स्रवनिरोधस्य हेतुः स भावसंवरः ॥ १६७॥ लोकपूजित उच्चगोत्र में जीवोंको उत्पन्न करता है और कभी मनुष्योंसे निन्दित नीच कुल में उत्पन्न करता है || १५३ ॥ अन्तरायकर्म भण्डारीके समान सदा ही जीवोंके दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन पाँचोंकी प्राप्ति में विघ्न करता है || १५४ || इत्यादि प्रकारसे आठों कर्मोंके अनेक जातिरूप स्वभाव जानना चाहिए। जीवोंके ये कर्मागमनके कारण प्रति समय होते रहते हैं, अतः जीव उनसे बँधता रहता है || १५५ ॥ ( यह प्रकृतिबन्धका स्वरूप कहा । अब कर्मो स्थितिबन्धको कहते हैं ) - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर - प्रमाण है || १५६ || दर्शनमोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कडाकोडी सागर - प्रमाण है । नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरप्रमाण है । इस प्रकार जिनेन्द्र देवने आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति कही ।। १५७-१५८।। वेदनीयकर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त -प्रमाण है । नाम और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त -प्रमाण है और शेष पाँच कर्मोकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण है । मध्यम स्थिति सर्व कर्मों की मनुष्योंके ( जीवोंके ) अनेक प्रकारकी जाननी चाहिए || १५९- १६०॥ ( अब कर्मोंका अनुभागबन्ध कहते हैं -) अशुभ कर्म प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध निम्ब-सदृश, कांजीर-सदृश, विष-सदृश और हालाहालके सदृश चार प्रकारका अशुभ होता है || १६१ || सभी शुभकर्म प्रकृतियों का अनुभागबन्ध गुड़-सदृश, खाँड-सदृश, शक्कर- सदृश और अमृतके सदृश प्राणियोंके शुभ होता है || १६२|| इस प्रकार संसारी प्राणियोंको सुख-दुःखादिका देनेवाला सर्वकर्मोंका अनेक जातिवाला अनुभाग क्षण-क्षण में उत्पन्न होता रहता है || १६३॥ ( अब प्रदेशबन्ध कहते हैं— ) रागी जीवके सर्व आत्म- प्रदेशों पर अनन्तानन्त संख्या वाले सूक्ष्म कर्म पुद्गल परमाणु सम्बन्धको प्राप्त होते हैं और वे परमाणुओंसे भरे हुए एक क्षेत्रमें निरन्तर एक प्रदेशावगाही होकर अवस्थित होते रहते हैं। यह प्रदेशबन्ध ही समस्त दुःखों का सागर है || १६४-१६५॥ यह चारों प्रकारका कर्म-बन्ध सर्व दुःखों का कारण है, अतः दक्ष पुरुषोंको चाहिए कि वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप बाणोंके द्वारा उसका शत्रुके समान विनाश करें || १६६ || राग-द्वेषसे रहित जो महान् चैतन्य परिणाम कर्मास्रव के विरोधका कारण है, वह For Private And Personal Use Only

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