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१५६ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१५.११२अतो गत्वा करोम्याशु विवादं गुरुणा सह । त्रिजगत्स्वामिनास्यैव चमत्कारकरं भुवि ॥११२॥ तेनोत्तमविवादेन महाख्यातिर्मविष्यति । सर्वथा न मनाहानिमें जगद्गुरुसंश्रयात् ॥११३॥ विचिन्त्येति स कालादिलब्धिप्रेरित आह वै । वादं विप्र त्वया साधं न कुर्वे त्वद्गुरुं विना ॥११४॥ इत्युक्त्वासौ समामध्ये शिष्यैः पञ्चशतैर्वृतः । भ्रातृभ्यां च ततो वेगानिर्ययौ सन्मतिं प्रति ॥११५॥
मात्सुधीजन् मार्गे हृदये चिन्तयेदिति । असाध्योऽयमहो विप्रो गुरुः साध्योऽस्य मे कथम् ॥११६॥ अथवा महती योगाभावि यत्तन्ममास्तु भोः । किन्तु वृद्धिर्न हानिमें श्रीवर्धमानसंश्रयात् ॥११७॥ इत्थं स चिन्तयन् दूरान्मानस्तम्भान्महोन्नतान् । ददर्श पुण्यपाकेन जगदाश्चर्यकारिणः ॥११॥ तेषां दर्शनवज्रेण मानादिः शतचूर्णताम् । अगात्तस्य शुमो भावः प्रादुरासीच्च मार्दवः ॥११॥ ततोऽतिशुद्धभावेन पश्यन् साश्चर्यमानसः । विभूतिं महती दिव्यां प्राविशत्तत्सभां द्विजः ।।१२०॥ तत्रान्तःस्थं जगन्नाथं विश्वर्धिगणवेष्टितम् । दिव्यविष्टरमासीनमपश्यत्स द्विजोत्तमः ॥१२॥ ततोऽसौ परया मक्त्या त्रिः परीत्य जगद्गुरुम् । स्वकरौ कुड्मलीकृत्य नत्वा तच्चरणाम्बुजौ ॥१२२॥ मूर्धा भक्तिमरेणैव नामाद्यैः षड्विधैः परैः । सार्थकैः स्तुतिनिक्षेपैः स्वसिद्धय स्तोतुमुद्ययौ ॥१२३॥ भगवंस्त्वं जगन्नाथः सार्थर्नामभिरूर्जितैः । अष्टोत्तरसहस्रः संभूषितो नामकर्मभित् ।।१२४॥ नाम्नैकेनाखिलार्थज्ञो यस्त्वां स्तौति मुदा सुधीः । सोऽचिरास्वत्समानानि नामान्याप्नोति तत्फलात् ॥
अतः इसके त्रिजगत्स्वामी गुरुके समीप शीघ्र जाकर संसारमें चमत्कार करनेवाले विवादको करूँगा। उस उत्तम विवादसे मेरी महाप्रसिद्धि होगी और जगद्-गुरुके आश्रय लेनेसे मेरी मान-हानि भी कुछ नहीं होगी ॥१११-११३॥
इस प्रकार विचारकर और काललब्धिसे प्रेरित हुआ वह गौतम बोला-हे विप्र, निश्चयसे तेरे गुरुके बिना मैं तेरे साथ वाद-विवाद नहीं करता हूँ । अर्थात् तेरे गुरुके साथ ही बात करूँगा ॥११४।। इस प्रकार सभाके मध्यमें कहकर अपने पाँच सौ शिष्यों और दोनों भाइयोंसे घिरा हुआ वह गौतम विप्र सन्मति प्रभके समीप जानेके लिए वहाँसे
बैंक निकला ॥११५॥ वह बद्धिमान क्रमशः मार्गमें जाते हए हृदयमें इस प्रकार सोचने लगा कि जब यह बूढ़ा. ब्राह्मण ही असाध्य है, तब इसके गुरु मेरे लिए साध्य कैसे हो सकता है ॥११६॥ अथवा महापुरुषके योगसे जो कुछ होनेवाला है, वह मेरे होवे । किन्तु श्री वर्धमानस्वामीके आश्रयसे मेरी वृद्धि ही होगी, हानि नहीं हो सकती है ॥११७|| इस प्रकार चिन्तवन करते और जाते हुए गौतमने दूसरे ही संसारमें आश्चर्य करनेवाले अति उन्नत मानस्तम्भोंको पुण्योदयसे देखा ॥११८|| उनके दर्शनरूप वज्रसे उसका मानसरूपी पर्वत शतधा चूर्ण-चूर्ण हो गया और उसके हृदयमें शुभ मृदुभाव उत्पन्न हुआ ॥११९।। तब वह गौतम आश्चर्ययुक्त चित्तवाला होकर अति शुद्ध भावसे महान दिव्य विभूतिको देखता हुआ उस समवशरणसभामें प्रविष्ट हुआ ॥१२०॥ वहाँपर सभाके मध्यमें स्थित, समस्त ऋद्धि-गगसे वेष्टित, और दिव्य सिंहासनपर विराजमान श्री वर्धमानस्वामीको उस द्विजोत्तम गौतमने देखा ॥१२१।।
तब वह परम भक्तिसे जगद्-गुरुकी तीन प्रदक्षिणा देकर और अपने दोनों हाथोंको जोड़कर उनके चरण-कमलोंको मस्तकसे नमस्कार कर भक्तिभारसे अवनत हो नाम, स्थापना आदि छह प्रकारके सार्थक स्तुति-निक्षेपोंके द्वारा अपनी सिद्धिके अर्थ स्तुति करनेके लिए उद्यत हुआ॥१२२-१२३॥ हे भगवन् , आप जगत्के नाथ हैं, उत्तम, सार्थक एक हजार आठ नामोंसे विभूषित हैं और नामकर्मके विनाशक हैं ॥१२४॥ सब नामोंके अर्थोंको जाननेवाला जो बुद्धिमान पुरुष आपके एक नामसे भी हषके साथ आपकी स्तुति करता है, वह उसके फलसे आपके समान ही एक हजार आठ नामोंको शीघ्र प्राप्त कर
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