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१६.४२ ]
षोडशोऽधिकारः
निर्ययौ भारती रम्या सर्वसंशयनाशिनी । मन्दराद्विगु होत्पन्न प्रतिच्छन्द निभा शुभा ॥३०॥ अहो तीर्थेशिनामेषा योगजा शक्तिरूर्जिता । यया जगत्सतामत्रोपकारः क्रियते महान् ॥३१॥ हे गौतमात्र याथात्म्यं तथ्यं यत्प्रोच्यते बुधैः । सर्वज्ञोक्तपदार्थानां तत्तत्वं विद्धि निश्चितम् ॥ ३२ ॥ द्वेधा जीवा भवन्त्यत्र मुक्तसंसारिभेदतः । मुक्ता भेदविनिःक्रान्ता बहुभेदा भवाध्वगाः ॥३३॥ अष्टकर्मानिर्मुक्ता गुणाष्टकविभूषिताः । एकभेदा जगदूध्येया समानसुखसागराः ॥३४॥ सर्वदुःखातिगा ज्ञेया सिद्धा लोकाग्रवासिनः । अनन्ता विगताबाधा ज्ञानदेहाश्च्युतोपमाः ॥३५॥ द्वेधा संसारिणी जीवाः स्थावस्त्रससंज्ञकाः । विकलैकाक्षपञ्चाक्षभेदैस्त्रेधाङ्गिनी मताः ॥ ३६ ॥ चतुर्धा देहिनो नूनं गतिभेदेन कीर्तिताः । एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियैः पञ्चविधाश्च ते ॥ ३७ ॥ त्रसस्थावरभेदाभ्यां षड्विधाः प्राणिनः स्मृताः । सतां षड्जीवरक्षायै जिनेनातिदयालुना ॥ ३८ ॥ पृथ्व्याद्याः स्थावराः पञ्च विकलाक्षाङ्गिराशयः । पञ्चाक्षा इति विज्ञेयाः सप्तधा जीवजातयः ॥ ३९॥ पञ्चधा स्थावरा एकभेदा विकलदेहिनः । संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽत्रेति ष्टधा जीवयोनयः ॥४०॥ पञ्चैव स्थावरा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाङ्गिनः । इति स्युर्नवधा जीवप्रकाराः श्रीजिनागमे ॥ ४१ ॥ पृथ्व्यप्तेजोमरुप्रत्येक साधारणदेहिनः । द्वित्रितुर्याक्षपञ्चाक्षा इत्यत्र दशधाङ्गिनः ॥ ४२ ॥
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साम्यताको प्राप्त मुख कमल में रंचमात्र भी ओष्ठ आदि चलनेकी विक्रिया (विशेष - क्रिया ) नहीं हुई । तथापि उनके मुख- कमलसे सर्व संशयों का नाश करनेवाली मन्दराचलकी गुफामेंसे निकली प्रतिध्वनिके समान गम्भीर, शुभ और रमणीय वाणी निकली ॥ २९-३०॥ आचार्य कहते हैं कि अहो, तीर्थंकरों की यह योग-जनित ऊर्जस्विनी शक्ति है कि जिसके द्वारा इस संसारमें समस्त सज्जनोंका महान् उपकार होता है ||३१|| भगवान् बोले - हे गौतम, इस संसारमें ज्ञानी जन जिसे यथार्थ सत्य कहते हैं, वह सर्वज्ञोक्त पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप है, वही तत्त्व कहलाता है, यह तू निश्चित समझ ||३२|| उस प्रयोजनभूत तत्त्वके सात भेद हैं । उनमें प्रथम जीवतत्त्व है । संसारी और मुक्तके भेदसे जीव दो प्रकारके हैं। मुक्त जीव भेदोंसे रहित हैं, अर्थात् सभी एक प्रकारके हैं । किन्तु भव-भ्रमण करनेवाले संसारी जीव अनेक भेवाले हैं ||३३|| इनमें मुक्त ( सिद्ध ) जीव आठ कर्मरूप शरीर से रहित हैं, सम्यवादि आठ गुणोंसे विभूषित हैं, एक भेदवाले हैं, जगत् के भव्य जीवोंके ध्येय हैं, समान सुख के सागर हैं, सर्वदुःखोंसे रहित हैं, लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं, सर्वबाधाओं से विमुक्त हैं, ज्ञानशरीरी हैं, सर्व उपमाओंसे रहित हैं और उनकी अनन्त संख्या है। ऐसे संसारसे मुक्त हुए जीवोंको सिद्ध जानना चाहिए ||३४-३५ ।। त्रस और स्थावर नामके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके हैं, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे वे तीन प्रकार के माने गये हैं ||३६||
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नरक आदि चार गतियोंके भेदसे वे निश्चयतः चार प्रकारके कहे गये हैं, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे वे पाँच प्रकारके हैं ||३७|| पृथिवीकायादि पाँच स्थावर और त्रसकायके भेदसे संसारी प्राणी छह प्रकार के कहे गये हैं, अतिदयालु जिनेन्द्रोंने इन छह कायके जीवोंकी रक्षाके लिए सज्जनोंको उपदेश दिया है ||३८|| पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिसे पाँच स्थावर काय, विकलेन्द्रिय जीवराशि और पंचेन्द्रिय इस प्रकार सात भेदरूप जीव जातियाँ जानना चाहिए ||३९|| पाँच प्रकारके स्थावर, एक भेदरूप विकलेन्द्रिय और संज्ञी - असंज्ञीरूप दो प्रकारके पंचेन्द्रिय, इस प्रकार इस संसार में आठ जातिकी जीवयोनियाँ हैं ||४०|| पाँचों ही स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियये तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव, इस प्रकार श्री जिनागम में संसारी जीव नौ प्रकार के कहे गये हैं ॥ ४१ ॥ पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक और