Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 191
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५.१६८ ] पञ्चदशोऽधिकारः वीर्यं तेऽन्तातिगं नाथ सति विश्वार्थदर्शने । सर्व दोषविनिःक्रान्तं निरौपम्यं विराजते ॥ १५५ ॥ अनन्तं परमं सौख्यं निराबाधं च्युतोपमम् । अत्यक्षं तेऽभवद्देवागोचरं विश्वदेहिनाम् ॥ १५६ ॥ अनन्यविषया एते ते दिव्यातिशयाः पराः । सर्वासाधारणा वीर विभ्राजन्ते महोदयाः ||१५७॥ एतास्ते निःस्पृहस्याष्ट प्रातिहार्यविभूतयः । कृत्स्न विश्वातिशायिन्यः शोभन्तेऽत्र च्युतोपमाः ॥ १५८ ॥ अन्ये ते गणनातीता गुणा लोकत्रयाग्रणाः । निरौपम्याश्च शक्यन्ते स्तोतुं मादृग्विधैः कथम् ॥ १५९ ॥ मेघधारानभस्तारावार्ध्यर्ध्यनतदेहिनाम् । यथा न ज्ञायते संख्या तथा ते गुणवारिधेः ॥ १६० ॥ Hear eared देव मया नातिक्रतः श्रमः । भाषणे ते गुणानां चागोचराणां गणेशिनाम् ॥ १६१ ॥ अतो देव नमस्तुभ्यं नमस्ते दिव्यमूर्तये । सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं नमोऽनन्तगुणात्मने ॥ १६२ ॥ नमस्ते हतदोषाय नमोऽबान्धवबन्धवे । नभो मङ्गलभूताय नमो लोकोत्तमाय ते ॥ १६३ ॥ नमो विश्वशरण्याय नमस्ते मन्त्रमूर्तये । नमस्ते वर्धमानाय महावीराय ते नमः ॥ १६४ ॥ नमः सन्मतये तुभ्यं नमो विश्वहितात्मने । त्रिजगद्गुरवे देव नमोऽनन्तसुखाधये ॥ १६५ ॥ इति स्तवननमस्कारमक्तिरागोत्थधर्मतः । दातारं परमं त्वां न याचे लोकन्त्रयश्रियम् ॥ १६६ ॥ किन्तु देहि भवमूर्ति सर्वा कर्मक्षयोद्भवाम् । मेऽनन्तशकत्र च नाथ नित्यां जगन्नुताम् ॥ १६७ ॥ यतस्त्वं परमो दाताऽत्राहं लोभी महान् भुवि । अतो मे सफलैषास्तु प्रार्थना त्वत्प्रसादतः ॥ १६८ ॥ For Private And Personal Use Only १५९ नाथ, सर्वदोषों से रहित आपका अनुपम यह अनन्तवीर्य विश्वके समस्त पदार्थोंके देखने में समर्थ हो रहा है || १५५ || हे देव, आपका बाधारहित, अनुपम और अतीन्द्रिय अनन्त परम सुख विश्व के समस्त प्राणियोंके अगोचर हैं || १५६ || हे वीर प्रभो, दूसरोंमें नहीं पाये जानेवाले ऐसे असाधारण ये सर्व दिव्य और महान् उदयवाले परम अतिशय आपमें शोभायमान हो रहे हैं ॥१५७॥ हे भगवन्, सर्वविश्वातिशायिनी, उपमा-रहित ये आठ प्रातिहार्य - विभूतियाँ सर्व इच्छाओंसे रहित आपके शोभित हो रही हैं || १५८ || इनके अतिरिक्त अन्य जो आपमें गणनातीत और त्रिलोक के अग्रगामी अनन्त निरुपम गुण हैं, उनकी स्तुति करने के लिए मेरे समान जन कैसे समर्थ हो सकते हैं || १५९ ॥ हे गुणसमुद्र, जैसे मेघधाराकी बिन्दुएँ, आकाशके तारे, समुद्रकी तरंगें और अनन्त प्राणियोंकी संख्या हमारे जैसोंके द्वारा नहीं जानी जा सकती है, उसी प्रकार आपके गुण-समुद्र की संख्या नहीं जानी जा सकती है || १६० || ऐसा मानकर हे देव, आपकी स्तुति करनेमें और गणधरोंके भी अगोचर आपके गुणोंके कहने में मैंने अधिक श्रम नहीं किया है || १६१ || अतः हे देव, आपको नमस्कार है, हे दिव्य मूर्तिवाले, आपको नमस्कार है, हे सर्वज्ञ, आपको नमस्कार है और हे अनन्तगुणशालिन्, आपको नमस्कार है || १६२|| दोषोंके नाशक आपको नमस्कार है, अबान्धवोंके बन्धु हे भगवन्, आपको नमस्कार है, हे लोकोत्तम, आपको नमस्कार है || १६३ || विश्वको शरण देनेवाले आपको मेरा नमस्कार है, मन्त्रमूर्ति, आपको नमस्कार है, हे वर्धमान, आपको नमस्कार है, हे सन्मते, आपको नमस्कार है, हे विश्वात्मन्, आपको नमस्कार है, हे त्रिजगद्-गुरो, आपको नमस्कार है और अनन्त सुखके सागर हे देव, आपको मेरा नमस्कार है ।। १६४ १६५ ।। इस प्रकार स्तवन, नमस्कार और भक्तिरागसे उत्पन्न हुए धर्मके द्वारा हे भगवन्, मैं आपसे तीन लोककी लक्ष्मीको नहीं माँगता हूँ, किन्तु हे नाथ, कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाली, अनन्त सुखकारी, जगन्नमस्कृत, अपनी नित्य विभूतिको मुझे दीजिए, क्योंकि आप इस संसार में परमदाता हैं और मैं महान् लोभी हूँ । अतः आपके प्रसादसे मेरी यह प्रार्थना सफल ही होवे ॥१६६-१६८।।

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