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१५.२८ ]
पञ्चदशोऽधिकारः एकरूपो यथा मेघजलौघः पात्रयोगतः । चित्ररूपो दुमादीनां जायते फलभेदकृत् ॥१५॥ तथा दिव्यध्वनिश्चादावेकरूपोऽप्यनक्षरः । नानाभाषामयो व्यक्तरूपोऽक्षरमयो महान् ॥१६॥ जायतेऽनेकदेशोत्पन्नानां नृणां च नाकिनाम् । पशूनां धर्मचिद्वक्ता विश्वसंदेहनाशकृत् ॥१७॥ रत्नपीठत्रयाग्रस्थं सिंहासनमनुत्तरम् । आरूढो जगतां नाथो धर्मराजैव भात्यहो ॥१८॥ इत्यनध्यैर्महादिव्यैः प्रातिहार्याष्टभिः परैः । अलंक्रतो महावीरो सभायां राजते तराम ॥१९॥ विमोः प्राग्दिशमारभ्य सत्कोष्ठे प्रथमे शुभे । गणीन्द्राद्या मुनीशोधाः स्थितिं चक्रे शिवाप्तये ॥२०॥ द्वितीये कल्पनायश्चाद्येन्द्राणीप्रमुखाश्चिदे । तृतीये चार्यिकाः सर्वाः श्राविकाभिः समं मुदा ॥२१॥ चतुर्थं ज्योतिषां देव्यः पञ्चमे व्यन्तराङ्गनाः । षष्ठे भावनदेवानां पद्मावत्यादिदेवताः ॥२२॥ सप्तमे धरणेन्द्राद्याः सर्वे च भावनामराः । अष्टमे व्यन्तराः सेन्द्राः नवमे ज्योतिषां सुराः ॥२३॥ चन्द्रसूर्यादयः सेन्द्रा दशमे कल्पवासिनः । एकादशसत्कोष्ठे च खगेशप्रमुखा नराः ॥२४॥ कोष्ठे द्वादशमे तिर्यञ्चोऽहिसिंहमृगादयः । इति द्वादशकोष्ठेषु परीत्य निजगद्गुरुम् ॥२५॥ द्विषभेदा गणा भक्त्या कृताञ्जलिपुटाः शुभाः । तिष्ठन्त्यग्निदाहार्ताः पातुं तद्वचनामृतम् ॥२६॥ वेष्टितस्तैर्जगदर्ता भासतेऽत्यन्तसुन्दरः । सर्वेषां धर्मिणां मध्ये धर्म मूर्तिरिवोच्छ्रितः ॥२७॥
अथ ते सामरा देवाधीशा धर्मरसोत्कटाः । भाले कृतकराब्जा जयजयादिप्रघोषकाः ॥२८॥ तत्त्व और धर्मको प्रकट करनेवाली दिव्य ध्वनि प्रतिदिन प्रकट होती थी ॥१४॥ जैसे मेघोंसे बरसा हुआ एक रूपवाला, जलसमूह वृक्षादिकोंके पात्र-योगसे विविध प्रकारके फलोंका उत्पन्न करनेवाला होता है, उसी प्रकार भगवानकी एक रूपवाली भी अनक्षरी दिव्यध्वनि नाना भाषामयी और व्यक्त अक्षरवाली होकर अनेक देशोंमें उत्पन्न हुए मनुष्यों, पशुओं और देवोंके समस्त सन्देहोंका नाश करनेवाली और धर्मका स्वरूप कथन करनेवाली थी ॥१५-१७॥ तीन रत्नपीठोंके अग्रभागपर स्थित अनुपम सिंहासनपर विराजमान ऐसे तीन जगत्के नाथ वीरजिनेन्द्र धर्मराजाके समान शोभित हो रहे थे ।।१८। इस प्रकार इन अमूल्य उत्कृष्ट आठ महाप्रातिहार्योंसे अलंकृत भगवान महावीर समवशरण-सभामें अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ।।१९।।
इस समवशरण-सभामें बारह कोठे थे। उनमें-से भगवानकी पूर्वदिशासे लेकर प्रथम शुभ प्रकोष्ठ में गणधरादि मुनीश्वरोंका समूह शिवपदकी प्राप्तिके लिए विराजमान था ॥२०॥ दूसरे कोठेमें इन्द्राणी आदि कल्पवासिनी देवियाँ विराजमान थीं। तीसरे कोठेमें सर्व आर्यिकाएँ श्राविकाओंके साथ हर्षसे बैठी हुई थीं ॥२१॥ चौथे कोठेमें ज्योतिषी देवोंकी देवियाँ बैठी थीं। पाँचवें कोठेमें व्यन्तर देवोंकी देवियाँ और छठे कोठेमें भवनवासी देवोंकी पद्मावती आदि देवियाँ बैठी थीं ।।२२।। सातवें कोठेमें धरणेन्द्र आदि सभी भवनवासी देव बैठे थे। आठवें कोठेमें अपने इन्द्रोंके साथ व्यन्तर देव बैठे थे। नवें कोठेमें चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देव बैठे थे ॥२३॥ . दशवे कोठेमें कल्पवासी देव बैठे थे। ग्यारहवें कोठेमें विद्याधर आदि मनुष्य बैठे थे और बारहवें कोठेमें सर्प, सिंह, मृगादि तिर्यंच बैठे थे। इस प्रकार बारह कोठोंमें बारह गणवाले जीव भक्तिसे हाथोंकी अंजलि बाँधे हुए, संसारतापकी अग्निसे पीड़ित होनेसे उसकी शान्तिके लिए भगवान्के वचनामृतका पान करनेके इच्छुक होकर त्रिजगद्-गुरुको घेरकर बैठे हुए थे ॥२४-२६॥ उक्त बारह गणोंसे वेष्टित, अत्यन्त सुन्दर, जगद्-भर्ता श्री वर्धमान भगवान सर्वधर्मीजनोंके मध्य में उन्नत धर्ममूर्तिके समान शोभायमान हो रहे थे ।॥२७॥
अथानन्तर धर्मरूप रसके पान करनेके उत्कट अभिलाषी वे सौधर्मादि इन्द्र अपने
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