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१४.१८६ ]
चतुर्दशोऽधिकारः असमगुणनिधानं केवलज्ञाननेत्रं त्रिभुवनपतिसेव्यं विश्वलोकैकबन्धुम् । निहतसकलदोष धर्मचित्तीर्थकर्तारमिह शिवगुणाप्त्यै संस्तुवे वीरनाथम् ।। १८६।।
इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते देवागमन
भगवत्समवशरणरचनावर्णनो नाम चतुर्दशोऽधिकारः ।।१४।।
झुकाकर नमस्कार करता हूँ ॥१८५॥ जो अनुपम गुणोंके निधान हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रके धारक हैं, त्रिभुवनके स्वामियों द्वारा सेवित हैं, समस्त विश्वके एकमात्र बन्धु हैं, सर्व दोषोंके नाशक हैं, इस भूतलपर धर्मतीर्थके कर्ता हैं, ऐसे श्री वीरनाथकी मैं शिवके गुणोंकी प्राप्तिके लिए स्तुति करता हूँ ॥१८६।। इति श्री भट्टारक सकलकीति-विरचित श्री वीरवर्धमानचरितमें देवोंका आगमन और भगवान्के
समवशरण-रचनाका वर्णन करनेवाला चौदहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।।१४।।
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