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१४.१४८ ]
चतुर्दशोऽधिकारः पूर्वोक्ता वर्णना चैत्यवृक्षेप्यत्रापि योज्यताम् । किं कल्पाज्रिपा एते संकल्पितसुभोगदाः ॥१३४॥ पर्यन्तेऽथ वनानां सदम्यास्ति वनवेदिका । चामीकरमयै रत्नैः खचिताङ्गी प्रभास्वराः ॥१३॥ राजतानि विराजन्ते तस्यां सद्गोपुराणि वै । मुकासम्बनदामोधैर्घण्टाजालप्रलम्बनैः ॥१३॥ सङ्गीतातोद्यनृत्तैश्च पुष्पमालाष्टमङ्गलैः । उत्तुङ्गशिखरैप्रैिः रत्नाभरणतोरणैः ॥१३७॥ ततो वीथ्यन्तगलस्थां विविधा ध्वजपतयः । परां महोमलं चक्रुहें मस्तम्भावलम्बिताः ॥१३॥ मणिपीठेषु सुस्थास्ते शोभन्ते स्वोन्नतिश्रिया । कर्मारिविजयं भर्तुः पुंसां वक्तुमिवोद्यताः ॥१३९॥ अष्टाशीत्यङ्गुलान्येषां रुन्द्रत्वं गणिभिर्मतम् । पञ्चविंशतिचापानि स्तम्भानामन्तरं विदुः ॥१४०॥ मानस्तम्मा ध्वजास्तम्भाः सिद्धार्थचैत्यपादपाः । स्तूपाः सतोरणाः सर्वे प्राकारा वनवेदिकाः ॥१४१॥ प्रोकास्तीर्थकरोत्सेधादुरसेधेन द्विषड्गुणाः । आयामयोग्यमेतेषां विस्तारं ज्ञानिनो विदुः ॥१४२॥ बनानां सर्वहाणां पर्वतानां तथैव च । तुङ्गत्वमेतदेवोक्तं द्वादशाङ्गाब्धिपारगैः ॥१४३॥ विस्तीर्णा अद्रयः सन्ति स्वोच्छायादष्टसंगुगम् । स्तूपानां रौन्ध्रमुत्सेधात्सातिरेकं भवेद् ध्रुवम् ।।१४४॥ वदन्ति वेदिकादीनामुरलेधाच्च चतुर्थकम् । विस्तारं विश्वतत्वज्ञा गणाधीशाः सुरार्चिताः ॥१४५॥ क्वचिन्नद्यः क्वचिद्वाप्यः क्वचित्सैकतमण्डलम् । क्वचित्सभागृहादीनि भवन्त्यत्र वनान्तरे ॥१४६।। वनवीथीमिमामन्तर्वप्रेऽसौ वनवेदिका । कलधौतमयी तुङ्गा चतुर्गोपुरभूषिता ॥१४७॥ अस्यास्तोरणमाङ्गल्यद्रव्याभरणसंपदः । गीतनर्तनवाद्याद्या विज्ञेयाः पूर्ववर्णिताः ॥१८॥
अधिष्ठित और छत्र-चामरादि विभूतिसे विराजित थे ॥१३३॥ पूर्वमें जो चैत्यवृक्षोंका वर्णन किया गया है वह इन सिद्धार्थ वृक्षोंमें भी समझना चाहिए। किन्तु ये कल्पवृक्ष संकल्पित सभी उत्तम भोगोंको देनेवाले थे ।।१३४|| इन कल्पवृक्षोंके वनोंके चारों ओर एक रमणीक वनवेदिका थी जो कि सुवर्ण-निर्मित, रत्नोंसे जड़ी हुई और अति प्रभायुक्त थी॥१३५।। उस वनवेदिकामें मोतियोंकी लटकती हुई मालाओंके पुंजसे और लटकते हुए घण्टा-समूहसे युक्त रजतमयी चार उत्तम गोपुर द्वार थे ॥१३६॥ वे सब संगीत, वादित्र और नृत्योंसे, पुष्पमाला आदि अष्टमंगलद्रव्योंसे, ऊँचे शिखरोंसे तथा देदीप्यमान रत्नोंके आभूषणवाले तोरणोंसे शोभित थे ॥१३७। उससे आगे वीथीके अन्तरालमें सोनेके स्तम्भोंके अग्रभागपर फहराती हुई अनेक प्रकारकी ध्वजा पंक्तियाँ वहाँकी श्रेष्ठ भूमिको अलंकृत कर रही थीं ॥१३८॥ मणिमयी पीठोंपर अवस्थित वे ध्वजस्तम्भ अपनी उन्नत शोभासे ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो स्वामीकी कर्म-शत्रुकी जीतको पुरुषोंसे कहने के लिए ही उद्यत हो रहे हैं ॥१३९।। उन ध्वजास्तम्भोंकी मोटाई अठासी ( ८८ ) अंगुल और स्तम्भोंका पारस्परिक अन्तराल पचीस (२५) धनुष गणधरोंने बताया है। समवशरणमें स्थित सर्व मानस्तम्भ, ध्वजास्तम्भ, सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष, स्तूप, तोरण-सहित प्राकार और वनवेदिकाएँ तीर्थ करके शरीरकी ऊँचाईसे बारह गुनी ऊँचाईवाली कही गयी हैं। इनका आयाम और विस्तार ज्ञानियोंको इनके योग्य जान लेना चाहिए ॥१४०-१४२॥ समवशरणमें स्थित वनोंकी, सर्व भवनोंकी तथा पर्वतोंकी ऊँचाई भी इतनी ही द्वादशांग श्रुत-सागरके पारगामी गणधर देवोंने कही है ॥१४३॥ पर्वत अपनी ऊँचाईसे आठ गुणित विस्तीर्ण हैं, और स्तूपोंकी मोटाई उनकी ऊँचाईसे निश्चयतः कुछ अधिक है ॥१४४।। विश्वतत्त्वोंके ज्ञाता, देव-पूजित गणधरदेव वनवेदिकादिकी चौड़ाई ऊँचाईसे चौथाई कहते हैं ॥१४५।। इस वनके मध्यमें कहीं नदियाँ, कहीं वापियाँ, कहीं सिकता-(बालुका-) मण्डल, और कहींपर सभागृह आदि थे ॥१४६।। इन वनवीथीको घेरे हुए सुवर्णमयी, उन्नत और चार गोपुर द्वारोंसे भूषित वनवेदिका थी ॥१४७। इसके तोरणद्वार, मांगलिक द्रव्य, आभूषण सम्पदा, और गीत-नृत्य वादित्रादिकी शोभा पूर्वोक्त वर्णनके समान ही जाननी चाहिए ॥१४८॥
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