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१३.५६ ]
त्रयोदशोऽधिकारः
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रसत्यागं तपो दध्यान्निर्विकृत्यादिना क्वचित् । ध्यानाय वनादौ च विवि शयनापनम् ॥४३।। प्रावृट्काले विधत्तेऽसौ झंझावातादिसंकुले । महायोगं तरोमूले तिकम्बलवेष्टितः ॥४४॥ चतुष्पथे सरित्तीरे शीतकाले स्थितिं भजेत् । ध्यानाग्निध्वस्तशीतौवः शीतदग्धद्रुमबजे ॥४५॥ भानुतीक्ष्णांशुसंतप्ते पर्वतानशिलातले । उष्णकाले प्रभुस्तिष्टेल्सिक्तो ध्यानामृताम्बुभिः ॥४६॥ कायक्लेशं भजन्नेवं शरीरसुखहानये । इत्यसौ षड्विधं चक्रे तपो बाह्यं सुदुस्सहम् ॥४७॥ प्रायश्चित्तातिगो देवो निःप्रमादो जितेन्द्रियः । निर्विकल्पं मनः कृत्वा कायोत्सर्ग विधाय च ॥४८॥ सर्वत्र स्वात्मनो ध्यानं कृत्स्नकर्मवनानलम् । कुर्यात्कर्मारिघाताय परमानन्दकारणम् ॥४९॥ अभ्यन्तरं तपः सर्व संपूर्ण तस्य जायते । तेनात्मध्यानयोगेन विश्वासवानरोधनात् ॥५०॥ इति तेपे चिरं वीरः सत्तपांसि पराणि च । स्ववीयं प्रकटीकृत्य द्वादशैव प्रयत्नतः ॥५१॥ आसीत्क्षमागुणेनासावकम्पः पृथिवीसमः । प्रसन्नेन स्वभावेन निर्मलोऽछाम्बुवत्सदा ॥५२॥ दुष्कर्मारण्यदाहे स ज्वलदग्निनिभोऽभवत् । दुर्जयः शत्रुतुल्यश्च कषायाक्षारिघातने ॥५३॥ धर्मबुद्ध्या मजेन्नित्यं महाधर्मविधायिनः । इहामुत्र सुखाब्धीन् स क्षान्त्यादीन् दशलक्षणान् ॥५४॥ क्षुत्तृषादिभवान् सर्वान् जयेद् घोरान् परीषहान् । वनस्थोपद्रवान् शक्त्या वीरोऽतुलपराक्रमः ॥५५॥ महाव्रतानि पञ्चैव भावनासहितानि सः । अतीचारादते दक्षो महाज्ञानाय पालयेत् ॥५६॥
अद्भत वृत्तिपरिसंख्यान तपको करते, कभी निर्विकृति आदिकी प्रतिज्ञा करके रसपरित्याग तपको करते और कभी ध्यानके लिए वनादि निर्जन प्रदेशोंमें विविक्तशयनासन तपको करते थे ।।४१-४३।। वे वीरजिन वर्षाकालमें झंझावात आदिसे व्याप्त वृक्षके मूलमें धैर्यरूप कम्बलसे वेष्टित होकर निवास करते, कभी शीतकालमें चौराहोंपर और नदीके किनारे ध्यानरूपी अग्निके द्वारा शीत पुंजको ध्वस्त करते हुए निवास करते थे, जिस शीतकालमें कि प्रचण्ड शीतके द्वारा वृक्षोंके समूह जल जाते थे ॥४४-४५।। उष्णकालमें वीर प्रभु सूर्यकी तीक्ष्ण किरणोंसे सन्तप्त पर्वतके शिखरपर अवस्थित शिलातलपर ध्यानामृतरूप जलसे सिंचित रहकर ठहरते थे॥४६॥ इस प्रकार शारीरिक सुखको दूर करनेके लिए वीर-जिनेन्द्र कायक्लेश तपको धारण करते थे। इन उपयुक्त छहों प्रकारके सुदुःसह बाह्य तपोंको वीर प्रभुने किया ॥४७॥ वीर जिनेन्द्र सदा प्रमाद-रहित होकर इन्द्रियोंको जीतते थे, अतः प्रायश्चित्त लेनेकी उन्हें कभी आवश्यकता नहीं थी। वे मनको सर्व प्रकारके संकल्प-विकल्पोंसे रहित करके और कायोत्सर्ग करके सर्वकर्मरूप वनको जलानेके लिए अग्निके समान अपनी आत्माका सर्वत्र ध्यान करते थे। इस प्रकार कर्म शत्रुके विघातके लिए परम आनन्दका कारणभूत सर्व प्रकारका अभ्यन्तर तप आत्मध्यानके योगसे और समस्त आस्रवोंके निरोधसे उनके सदा होता रहता था ॥४८-५०। इस प्रकार वीर भगवान्ने अपने वीर्यको प्रकट करके प्रयत्नपूर्वक बारहों ही उत्तम तपोंको चिरकाल तक तपा ।।५।।
उत्तम क्षमागुणके द्वारा वे वीर भगवान् पृथिवीके समान सदा अकम्प रहते थे। और प्रसन्न स्वभावके द्वारा वे सदा स्वच्छ जलके समान निर्मल चित्त रहते थे ।।५२।। दुष्कर्म रूप वनको जलानेमें वे जलती हुई अग्निके समान थे, कषाय और इन्द्रिय-शत्रुओंको घात करनेमें वे दुर्जय शत्रुके तुल्य थे ॥५३।। वे भगवान् धर्मबुद्धिसे सदा परमधर्मका आचरण करते थे और इस लोक तथा परलोकमें सुखके सागर ऐसे क्षमादि दश लक्षणधर्मको धारण करते थे ॥५४।। वे अतुल पराक्रमी वीर प्रभु अपनी शक्तिसे क्षुधा-तृषादि-जनित सर्वघोर परीषहोंको तथा वनमें होनेवाले सभी उपद्रवोंको सहन करते थे ॥५५॥ वे दप्रभु भावनाओंके साथ, अतीचार-रहित पाँचों ही महाव्रतोंको परम केवलज्ञानकी प्राप्ति के लिए पालन करते थे ॥५६।।
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