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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १३.११६
उद्योतः स्थावरः सूक्ष्मः साधारण इमाः खलाः । षोडशप्रकृतीवरो जघानेवारिसंचयान् ॥ ११६ ॥ सुभटोत्तमवच्चाद्यशुक्लध्यानासिना स्वयम् | अनिवृत्तिकरणस्थानस्याये भागे स्थितो महान् ॥११७॥ भागेऽस्यैव द्वितीयेऽष्टौ कषायान् वृत्तघातिनः । तृतीये क्लीबवेदं च चतुर्थे स्त्रीवेदमात्मवान् ॥ ११८ ॥ पञ्चमे किल हास्यादिषङ्कं भागे च द्वित्रिके । पुंवेदं सप्तमे संज्वलनक्रोधमथ ष्टमे ॥ ११९ ॥ मानं संज्वलनं वै नवमे मायां तथान्तिमाम् । शुक्लायुधेन तेनैवाहन्ना रातीनि वोर्जितः ॥ १२० ॥ ततो निहतकर्मारिसंतानो बलवान् जिनः । जयभूमिं परां चाप्य गुणस्थानं द्विपञ्चमम् ॥ १२१ ॥ निहत्य सूक्ष्मलोभं सूक्ष्मसाम्पराय संयमी । तुर्यवृत्तेन सोऽभूत्क्षीणकषायी तदाद्भुतः ॥ १२२ ॥ इति मोहमहारातिं कर्मणां पतिमूर्जितम् । हत्वा तत्सेनया सार्धं सोऽभाच्छूराग्रणीरित्र ॥ १२३ ॥ अथोत्पत्य गुणस्थानं प्राप्य द्वादशमं जिनेट् । केवलज्ञानसाम्राज्यं स्वीकर्तुमुद्ययौ तराम् ॥ १२४ ॥ निद्रां च प्रचलां सोऽक्षपयद्विसमयेऽन्तिमे । गुणस्थानस्य तस्यैव द्वितीयशुक्लयोगतः ॥ १२५ ॥ ज्ञानावरणकर्माणि पटतुल्यानि पञ्च वा । दर्शनावरणान्येव शेषचत्वारि पञ्चधा ॥ १२६ ॥ अन्तराया इमा घातिप्रकृतीश्च चतुर्दश । द्वितीयशुक्ल बाणेन जघान त्रिजगद्गुरुः ॥ १२७ ॥ द्विषद्गुणस्थानस्यान्तिमे समये जिनः । इति त्रिषष्टिकर्मप्रकृतीर्हत्वाप केवलम् ॥ १२८ ॥ ज्ञानमन्तातिगं लोकालोकतत्त्वप्रकाशकम् । अनन्तमहिमोपेतं मुक्तिला ज्यकारणम् ॥ १२९॥ वैशाखशुपक्षस्य दशम्यामपराह्न के । हस्तोत्तरान्तरं याते चन्द्रे योगादिके शुभे ॥ १३० ॥
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प्रचला, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन अरिसंचयस्वरूप सोलह अशुभ दुष्ट प्रकृतियोंको अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानके प्रथम भाग में स्थित रहते हुए उत्तम सुभटके समान प्रथम शुक्लध्यानरूपी खड्गके द्वारा एक साथ ही स्वयं नाश कर दिया ।।११४ - ११७|| पुनः उन्होंने इसी नवम गुणस्थानके द्वितीय भागमें चारित्रकी घात करनेवाली दूसरी अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और तीसरी प्रत्याख्यानावरण चतुष्क इन आठ कषायों को विनष्ट किया । पुनः तीसरे भाग में नपुंसक वेदको चौथे भाग में स्त्रीवेदको पाँचवें भाग में हास्यादि छह नोकपायोंको, छठे भाग में पुरुषवेदको, सातवें भाग में संज्वलन क्रोधको, आठवें भागमें संज्वलन मानको और नवें भागमें संज्वलन मायाको उन समर्थ आत्मस्वरूप के धारक वीर प्रभुने उसी प्रथम शुक्लध्यानरूप आयुध के द्वारा विनष्ट किया ।।११८-१२०|| तत्पश्चात् कर्म शत्रुओंकी उक्त सन्तान के विनाश करनेसे बलवान् वीरजिनने परम विजयभूमिके समान दशम गुणस्थानको प्राप्त होकर सूक्ष्म साम्पराय संयमी होते हुए संज्वलन सूक्ष्म लोभका भी विनाश कर चौथे संयमके द्वारा वे क्षीणकषायी हो गये ||१२१ -१२२|| इस प्रकार अद्भुत पराक्रमशाली वीरजिन कर्मों के स्वामी प्रबल मोह महाशत्रुका उसकी सेनाके साथ विनाश कर शूरामणीके समान शोभाको प्राप्त हुए || १२३ || इसके पश्चात् वे जिनराज क्षीणकषाय नामके बारहवें गुणस्थानमें चढ़कर केवलज्ञानरूपी साम्राज्यको प्राप्त करने के लिए उद्यत हुए || १२४ || तब उन्होंने इस बारहवें गुणस्थानके चरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो कर्मप्रकृतियोंका द्वितीय शुक्लध्यानसे क्षय किया || १२५ || पुनः ज्ञानके ऊपर वस्त्रके समान आवरण डालनेवाली पाँचों ज्ञानावरण प्रकृतियोंको, चक्षुदर्शनावरणादि शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियोंको और पाँचों अन्तरायोंको इन चौदह कर्म प्रकृतियोंको बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समय में द्वितीय शुक्लध्यानके द्वारा तीन जगत् के गुरु महावीर प्रभुने एक साथ विनष्ट किया और इस प्रकार तिरेसठ कर्मप्रकृतियोंका विनाश करके लोकालोकके तत्त्वोंका प्रकाशक, अनन्त महिमासे युक्त, और मुक्तिरूप साम्राज्य की प्राप्तिका कारण अनन्त केवलज्ञान वैशाख मास की शुक्लपक्षकी दशमीके अपराह्न
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