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१३.१३६ ]
त्रयोदशोऽधिकारः सम्यक्त्वं क्षायिकं मोक्षदं यथाख्यातसंयमम् । अनन्तं केवलज्ञानं दर्शनं दानमुत्तमम् ॥१३॥ लामभोगोपभोगा वीर्य चेमा हि च्युतोपमाः । नवकेवललब्धीः स स्वीचकार जिनाग्रणीः ॥१३२॥ इति भगवति वृत्तान्निर्जितारौ तदैव नभसि जयनिनादो देवसंधैर्जजम्भे । सुरपटहरवौघेरुद्धमासीत्खलोकं भुवनपतिविमानश्छादितं यात्रपास्य ।।१३३॥ घनकुसुमवृष्टिश्चापतत्खात्सुरेन्द्राः असमपरमभक्त्या श्रीपतिं प्राण स्तम् । विगतमलविकाराः संबभूवुर्दिशोऽष्टौ गगनममलमासीत् केवलश्रीप्रभावात् ॥१३४॥ मृदुशिशिरतरोऽस्मान्मातरिश्वा ववौ च सकलसुरपतीनां कम्पिरे विष्टराणि । समवशरणभूतिं यक्षराडाशु चक्रे ह्यसमगुणनिधे श्रीवर्धमानस्य भक्त्या ॥१३५।। इत्थं योऽत्र निहत्य घातिकुरिपून् कैवल्यराज्य श्रियं
स्वीचक्रेऽनुपमैः परैर्गुणगणैः अन्तातिगैः क्षाग्रिकैः । तन्वन् विश्वसतां प्रमोदमतुलं मव्यकचूडामणिं
तं लोकत्रयतारणकचतुरं तद्भूतये संस्तुवे ॥१३॥ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते केवलज्ञानोत्पत्ति
वर्णनं नाम त्रयोदशोऽधिकारः ॥१३॥
कालमें हस्त और उत्तरा नक्षत्रके मध्यमें शुभचन्द्रयोगके समय शुभलग्न योगादिके होनेपर उन्होंने प्राप्त किया ॥१२६-१३०॥ उसी समय मोक्षको देनेवाला क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात संयम, अनन्त केवलज्ञान, अनन्त केवलदशन, उत्तम अनन्त दान लाभ भोग उपभोग और अनन्तवीर्य इन उपमारहित नव केवललब्धियोंको जिनोंमें अग्रणी वीरप्रभने स्वीकार किया ।।१३१-१३२।।।
इस प्रकार चारित्रके प्रभावसे भगवानके कर्मशत्रुओंके जीत लेनेपर आकाशमें उसी समय देवसमूह के द्वारा जय-जयकार शब्द व्याप्त हो गया। तथा देवदुन्दुभियोंके शब्दोंसे आकाश व्याप्त हो गया। भगवान्की दर्शन-यात्रार्थ आनेवाले भुवनपति-देवोंके विमानोंसे आकाश आच्छादित हो गया ॥१३३।। केवललक्ष्मीके प्रभावसे आकाशसे सघन पुष्पवृष्टि होने लगी और देवेन्द्रोंने आकर उन श्रीपति महावीर जिनेन्द्रको अनुपम परम भक्तिसे नमस्कार किया । उस समय आठों ही दिशाएँ मल-विकारसे रहित (निर्मल) हो गयीं और आकाश भी निर्मल हो गया ॥१३४।। उस समय मृदु शीतल समीर मन्द-मन्द बहने लगी और सभी देवेन्द्रोंके आसन कम्पायमान हुए। तभी यक्षराजने आकर अनन्त गुणोंके निधान श्रीवर्धमान जिनेन्द्रकी भक्तिसे शीघ्र समवसरण विभूतिकी रचना की ।।१३५||
इस प्रकार यहाँ पर जिन्होंने खोटे धातिया कर्मशत्रुओंको मार करके अनुपम, अनन्त क्षायिक गुण-समूह के साथ कैवल्यराज्य-लक्ष्मीको प्राप्त किया, जो संसारके समस्त सज्जनोंको अतुल आनन्दके विस्तारनेवाले हैं, भव्य जनोंमें अद्वितीय चूडामणिरत्नके समान हैं, तीनों लोकोंके तारनेमें एक मात्र कुशल हैं, ऐसे श्रीवीरजिनेन्द्रकी मैं उनकी विभूति पानेके लिए स्तुति करता हूँ ॥१३६।। इति श्रीभट्टारक सकलकीतिविरचित श्रीवीरवर्धमानचरितमें केवलज्ञानकी उत्पत्तिका
वर्णन करनेवाला तेरहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।।१३।।
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