________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१३६
श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १४.२९
त्रयस्त्रिंशत्नमास्त्राय त्रिंशदेवाः शुभातये । पुरोघोमन्त्रयमात्यानां समा इन्द्रात्तमाययुः ॥ २९ ॥ द्विषट्सहस्र (१२०००) देवाच्याभ्यन्तरा परिषत्परा । चतुर्दशसहस्रामरैः संयुक्ता च मध्यमा ॥३०॥ निर्जरैरन्विता बाह्याः सहस्रषोडशप्रमैः । इति त्रिपरिषद्द्देवा वत्रिरे तं सुरेशिनम् ॥३१॥ शिरोरक्षासमा आत्मरक्षास्तत्संनिधिं ययुः । त्रिक्षाधिकषट्त्रिंशत्सहस्रसंख्यकास्तदा ॥३२॥ दुर्गपालनिभा लोकपाला लोकान्तपालकाः । वव्रिरे तं च सर्वांशं स्वपरीवारमण्डिताः ॥ ३३ ॥ चतुष्टयाधिकाशीतिलक्षसंख्या वृषोत्तमाः । दिव्यरूपाः पुरः शक्रस्याद्येऽनीके च निर्ययौ ॥३४॥ आयाद् द्विगुणसंख्याना द्वितीये वृषभाः पराः । तेभ्यो द्विगुणसंख्यातास्तृतीये सासना वृषाः ॥ ३५ ॥ एवं सप्तवृषानीका द्विगुणद्विगुणप्रमाः । नानावर्णाः सुरैर्युक्ताः पुरो जग्मुः सुरेशिनः ॥ ३६ ॥ तत्प्रमास्तुरगास्तुङ्गाः सप्तानीकान्विताः पृथक् । रथा मणिमया दीप्रा अद्रयामा दन्तिनः परा ॥ ३७ ॥ उद्यमेन प्रगच्छन्तः शीघ्रगामिपदातयः । दिव्य कण्ठाश्च गन्धर्वा गायन्तः श्रीजिनोत्सवम् ॥ ३८॥ नृत्यन्त्यः सुरनर्तक्यो गीतैर्वाद्यैर्जिनोद्भवैः । प्रत्येकं सप्तकक्षायाः क्रमादस्याग्रतो ययुः ॥ ३९ ॥ पौरैश्च संनिभा देवा गतसंख्याः प्रकीर्णकाः । अभियोग्याभिधास्तद्व दासकर्मकरोपमाः ॥४०॥ प्रजाबाह्य समाना बहवः किल्विषिकामराः । सौधर्मेन्द्रेण भक्त्यामा निर्गतास्तन्महोत्सवे ॥४१॥ अश्ववाहनमारूढ ऐशानेन्द्रोऽपि धर्मधीः । तत्समं निर्ययौ भक्त्या स्वविभूतिविराजितः ॥ ४२ ॥ मृगेन्द्रवाहनारूढः सनत्कुमारनायकः । माहेन्द्रः सर्वसामग्र्या दिव्यवृषभमाश्रितः ॥४३॥ दीप्तसारसमारूढो ब्रह्मेन्द्रश्चामरैर्वृतः । हंसवाहनमारूढो लान्तवेन्द्रो महर्द्धिकः ॥ ४४ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सामानिक देव भी हर्षसे निकले ||२८|| पुरोहित, मन्त्री और अमात्योंके समान तैंतीस त्रयस्त्रिंशदेव भी पुण्य प्राप्ति के लिए इन्द्रके समीप आये ||२९|| बारह हजार देवोंसे युक्त आभ्यन्तर परिषद्, चौदह हजार देवोंसे संयुक्त मध्यम परिषद् और सोलह हजार देवों सहित बाह्य परिषद् आकर उस सुरेन्द्र सौधर्मेन्द्रको घेर लिया। अर्थात् तीनों सभाओंके उक्त संख्यावाले सभी देव ज्ञानकल्याणककी पूजा करने के लिए सौधर्मेन्द्रके समीप आये || ३०-३१ ॥ शिरोरक्षक के समान तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव उसी समय सौधर्मेन्द्र के समीप आये ||३२|| दुर्गपाल के समान लोकान्त तक स्वर्गकी पालना करनेवाले लोकपाल देव भी अपने परिवार के साथ सर्व दिशाओंको मण्डित करते हुए उसको चारों ओर से घेरकर आ खड़े हुए ||३३|| इन्द्रकी प्रथम वृषभसेना के चौरासी लाख दिव्यरूपके धारक उत्तम बैल इन्द्रके आगे चलने लगे ||३४|| इनसे दने बैल वृषभोंकी दूसरी सेनामें थे, उनसे दूने बैल वृषभोंकी तीसरी सेनामें थे । इस प्रकार सातवीं वृषभ सेना तक दूने-दूने प्रमाणवाले, नाना वर्णोंके धारक सुन्दर बैल इन्द्रके आगे चलने लगे || ३५-३६|| बैलोंकी सातों सेनाओंकी संख्या के समान ही प्रमाणवाली घोड़ोंकी सात सेनाएँ उनके पीछे-पीछे चलीं । उनके पीछे मणिमयी दीप्रियुक्त रथ, पर्वतके समान विशाल गज, उद्यमके साथ चलनेवाले शीघ्रगामी पैदल सैनिक, दिव्य कण्ठवाले और श्रीजिनोत्सव के गीत गानेवाले गन्धर्व, और जिनेन्द्र सम्बन्धी गीत वाद्योंके साथ नाचती हुई देव-नर्तकियाँ ये सब क्रम से अपनी-अपनी उक्त संख्यावाली सात-सात कक्षाओं के साथ आगे-आगे चलने लगे ||३७ - ३९ ॥ पुरवासी लोगोंके सदृश असंख्यात प्रकीर्णक देव, दासके समान कार्य करनेवाले आभियोग्य जातिके देव और प्रजासे बाहर रहनेवाले बहुत-से किल्पिक देव भक्तिसे सौधर्मेन्द्र के साथ उस महोत्सव में आगे-आगे चल रहे थे ||४०-४१॥ धर्मबुद्धिवाला ऐशानेन्द्र भी भक्तिके साथ अपनी विभूतिसे युक्त होकर अश्ववाहनपर आरूढ़ हो सौधर्मेन्द्र के साथ निकला || ४२ ॥ मृगराज (सिंह) के वाहनपर चढ़कर सनत्कुमारेन्द्र और दिव्य वृषभपर चढ़कर माहेन्द्र भी सर्व सामग्री के साथ निकला ||४३|| कान्ति युक्त सारसपर आरूढ होकर देवोंसे घिरा हुआ ब्रह्मेन्द्र, हंसवाहनपर आरूढ़ होकर महर्द्धिक लान्तवेन्द्र,
For Private And Personal Use Only