________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चतुर्दशोऽधिकारः
श्रीवीरं त्रिजगन्नाथं केवलज्ञानभास्करम् । अज्ञानध्वान्तहन्तारं वन्दे त्रिश्वार्थदर्शिनम् ॥१॥ अथ तरकेवलोत्पत्तिप्रभावादभवत्स्वयम् । नादो जिताब्धिनिर्घोषो घण्टोत्थो मधुरोऽद्भुतः ॥ २॥ पुष्करैः स्वैस्वथोत्क्षिप्त पुष्करार्धाः सुरद्विपाः । सानन्दा ननृतुः स्वर्गे चलन्तः पर्वता इव ॥३॥ पुष्पाञ्जलीनिवातेनुः पुष्पवृष्टीः सुराङ्घ्रिपाः । रजस्त्यक्ता दिशोऽभूवन्नम्बरं निर्मलं ह्यभूत् ॥४॥ त्रिष्टराणि सुरेशानां सहसा प्रचकम्पिरे । अक्षमाणीव तद्गवं सोढुं श्रीकेवलोत्सवे ||५|| मौलयो नाकिनाथानां नन्रीभावमगुस्तराम् । इत्यासन् स्त्रयमाश्चर्याः नाके तत्सूचका इव ॥ ६ ॥ विज्ञायैतैः परैश्विरिन्द्रास्तत्केवलोदयम् । मुदोत्थायासनान्नम्रास्तद्भक्त्यासन् वृषोत्सुकाः ॥ ७ ॥ ज्योतिर्लोके तदैवासीन्महान् सिंहस्वरोऽद्भुतः । बभूवुः स्वर्गवसिहासन कम्पादयोऽखिलाः ॥८॥ शङ्खध्वनिरभूद्दीर्घो भावनाधिपधामसु । अभूवन् सकाश्वर्या मौल्यासनचलादयः ॥९॥ भेरीरवः परो जातः स्वयं व्यन्तरवेश्मसु । आश्चर्यमभवत्सर्वं तद्वतज्ज्ञानसूचकम् ॥१०॥ इत्याश्चर्यैर्विबुध्यैनं प्राप्तकेवललोचनम् । नत्वा मृघ्नखिलाः शक्रास्तत्कल्याणे ततिं व्यधुः ॥ ११ ॥ अथ तज्ज्ञानपूजायै निश्चक्रामामरैर्वृतः । प्रयाणपटद्देषूच्चैः प्रध्वनत्स्वादिकल्पराट् ॥ १२ ॥ तदा बलाहकाकारं विमानं कामकाभिधम् । जम्बूद्वीपप्रमं रम्यं मुक्तालम्बनशोभितम् ॥१३॥ नानारत्वमयं दिव्यं तेजसा व्याप्तदिग्मुखम् । किङ्किणीस्वनवाचालं चक्रे देवो बलाहकः ॥१४॥
तीन जगत्के नाथ, अज्ञानरूप अन्धकारके नाशक, केवलज्ञानरूप सूर्य से समस्त पदार्थोंके दर्शक श्री वीर भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर वीरप्रभुके केवलज्ञानकी उत्पत्तिके प्रभाव से देवलोक में समुद्रकी गर्जनाको भी जीतनेवाला, घण्टाओंसे स्वयं उत्पन्न हुआ अद्भुत मधुर नाद हुआ ||२|| देवराज अपनी सूंडोंमें कमलोंको लेकर और उन्हें आधी ऊपर उठाकर चलते हुए पर्वत के समान स्वर्ग में सानन्द नाचने लगे ||३|| देवलोकके कल्पवृक्षोंने पुष्पांजलिके समान पुष्पवृष्टि की। सर्व दिशाएँ रज-रहित हो गयीं और आकाश निर्मल हो गया ||४|| भगवानकी केवलोत्पत्तिके उत्सवमें इन्द्रोंके गर्वको सहने में असमर्थ होकर मानो देवेन्द्रोंके सिंहासन सहसा काँपने लगे ||५|| सुरेन्द्रोंके मुकुट स्वयं ही नम्रीभूत हो गये । इस प्रकार स्वर्ग में भगवान् के केवलो - त्पत्तिके सूचक आश्चर्य हुए ||६|| इन तथा इसी प्रकार के अन्य चिह्नोंसे भगवान् के केवलज्ञानके उदयको जानकर इन्द्रगण अपने-अपने आसनोंसे उठकर हर्पित होते हुए धर्मोत्सुक हो भगवद्-भक्तिसे नम्रीभूत हो गये ||७|| उस समय ज्योतिष्क लोक में महान अद्भुत सिंहनाद हुआ | तथा स्वर्गके समान सिंहासनोंका कम्पन आदि सर्व आश्चर्य हुए ||८|| भवनवासी देवोंके भवनों में शंखोंकी महाध्वनि हुई और मुकुट नम्रीभूत होना तथा आसनोंका कँपना आदि शेष समस्त आश्चर्य हुए || ९ || व्यन्तरोंके निल्यों में भेरियोंका भारी शब्द स्वयं होने लगा और भगवान् के केवलज्ञान की प्राप्तिके सूचक शेष सर्व आश्चर्य हुए ||१०|| इन सब आश्चर्योंसे सर्व देव और इन्द्रगणोंने वीरप्रभुके केवलज्ञानरूप नेत्रको प्राप्त हुआ जानकर ज्ञानकल्याणक मनानेका विचार किया || ११|| तब आदि सौधर्मकल्पका स्वामी शकेन्द्र प्रस्थान-भेरियोको उच्च स्वरसे बजवाकर सर्व देवोंसे आवृत हो भगवान् के केवलज्ञानकी पूजा के लिए निकला ||१२|| तब बलाहक नामक अभियोग्य जातिके देवने जम्बूद्वीपप्रमाण एक लाख योजन विस्तृत, रमणीक, मुक्तामालाओंसे शोभित, किंकिणी ( छोटी घण्टियों ) के
For Private And Personal Use Only