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१३.८५ ] त्रयोदशोऽधिकारः
१२९ इत्याद्युपदवै| रैर्वेष्टितोअप जगत्पतिः । तथापि न मनाक क्लेशं मनसागानगेन्द्रवत् ॥७२॥ चलत्यचलमालेयमहो दैवात् क्वचिदभुवि । न जातु योगिनां चित्तं ध्यानाद् घोरैरुपद्रवैः ॥७३॥ धन्यास्त एव लोकेऽस्मिन् येषां याति न विक्रियाम् । मनाग्मनः स्थितं ध्या शतादिभिः।।७४॥ ततो ज्ञात्वा महावीरमचलाकृतिमूर्जितम् । लज्जापन्नः स एवेत्थं तत्स्तुति कर्तुमुद्ययौ ॥७५॥ देव त्वमेव लोकेऽस्मिन् वीर्यशाली जगदगुरुः । वीराग्रणीमहावीरो महाध्यानी महातपाः ॥७६॥ महातेजा जगन्नाथो जिताशेषपरीषहाः । निःसङ्गो वायुवद्धारो ह्यचलोऽत्र कुलाद्रिवत् ॥७७॥ क्षमया भसमो दक्षो गम्भीर इव सागरः । स्वच्छाम्बुवत्प्रसन्नात्मा कर्मारण्येऽनलोपमः ॥७८॥ वर्धमानस्त्वमेवात्र वर्धमानाजगस्त्रये । सन्मतिः सार्थकस्त्वं च परमात्मा महाबलः ॥७२॥ अत्र नाथ नमस्तुभ्यमचलाकृतिधारिणे । नमः परात्मने नित्यं प्रतिमायोगशालिने ॥८॥ इति कृत्वा स्तुतिं तस्य मुहुर्नत्वा पदाम्बुजौ । स महातिमहावीराख्यां विधाय ह्यमत्सरः ॥८१॥ उमयाकान्तया साध नतित्वानन्दनिर्भरः । चारित्रचलितो रुद्रो जगाम निजमाश्रयम् ॥४२॥ दुर्जना अप्यहो वीक्ष्य साहसं महतां महत् । तुष्यन्ति योगजं नूनं भूतले का कथा सताम् ॥८॥ अथ चेटकराजस्य चन्दनाख्यां सुतां सतीम् । वनक्रीडासमासक्तां कश्चित्कामातुरः खगः ॥८४|| वीक्ष्योपायेन नीवाशु गच्छन् पापपरायणः । पश्चाद्धीत्वा स्वभार्याया महाटव्यां व्यसर्जयत् ॥८५॥
अनेक प्रकारके भयावह आकारोंकों धारण किये हुए थे, और कायरजनोंको डरानेवाले थे। उनके द्वारा उस रुद्रने भगवान के ऊपर घोर उपद्रव कराये। किन्तु उनके द्वारा सर्व ओरसे वेष्टित भी जगत्पति वीरनाथ मनसे जरा भी क्लेशको नहीं प्राप्त हुए किन्तु सुमेरुके समान स्थिर बने रहे।७१-७२।। आचार्य कहते है कि अहो, संसारमें देवयोगसे कचित् कदाचित् पर्वतमाला भले ही चलायमान हो जाये. किन्तु योगियोंका चित्त घोर उपद्रवोंके द्वारा ध्यानसे कभी विचलित नहीं होता है ॥७३॥ इस लोकमें वे पुरुष ही धन्य हैं, जिनका ध्यानमें स्थित मन सैकड़ों-हजारों उपसर्गों के द्वारा भी रंचमात्र विकारको नहीं प्राप्त होता है ।।७४।। तब वह रुद्र महावीरको अत्यन्त अचलाकार जान करके लज्जाको प्राप्त होता हुआ इस प्रकारसे उनकी स्तुति करनेके लिए उद्यत हुआ ।।७५।।
हे देव, आप ही इस लोकमें परम वीर्यशाली हैं, जगद्-गुरु हैं, वीर पुरुषोंमें अग्रणी हैं, महान् वीर हैं, महाध्यानी हैं, महान तपस्वी हैं, महातेजस्वी हैं, जगत्के नाथ हैं, समस्त परीषहोंके विजेता हैं, वायुके समान निःसंग हैं, धीर-वीर हैं और कुलाचलके समान अचल हैं ।।७६-७७। आप क्षमासे पृथ्वीके समान हैं, दक्ष हैं, सागरके समान गम्भीर हैं, स्वच्छ जलके समान प्रसन्न आत्मा हैं, और कर्मरूप वनको जलानेके लिए अग्निके समान हैं ॥७॥ आप तीनों लोकोंमें अपने गुणोंसे बढ़ रहे है, अतः आप ही यथाथेमें वधेमान है, उत्तम बुद्धिको धारण करते हैं, अतः आप 'सन्मति' इस सार्थक नामवाले हैं, आप ही परमात्मा हैं और महाबली हैं ।।७८-७९।। हे पूज्य स्वामिन् , अविचल देहके धारण करनेवाले आपके लिए मेरा नमस्कार है, नित्य प्रतिमायोगशाली आप परमात्माके लिए मेरा नमस्कार है ।।८०॥ इस प्रकार वर्धमान जिनकी स्तुति करके और बार-बार उनके चरण-कमलोंको नमस्कार करके 'महतिमहावीर' इस नामको रखकर मत्सर-रहित होकर अपनी उमा कान्ताके साथ आनन्द-निर्भर हो नृत्य करके चारित्रसे चलायमान हुआ वह रुद्र अपने स्थानको चला गया ।।८१-८२।। आचार्य कहते हैं कि अहो, दुर्जन पुरुष भी महापुरुषोंके योग-जनित महान् साहसको देख करके जब सन्तुष्ट होते हैं, तब भूतलपर सज्जनोंकी तो कथा ही क्या है ? अर्थात् वे तो और भी अधिक सन्तोषको प्राप्त होते हैं ।।८।।
अथानन्तर चेटक राजाकी वनक्रीड़ामें आसक्त, चन्दना नामकी सती पुत्रीको देखकर
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